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समाज और संस्कृति
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होकर चलना पड़ता है । ईश्वर पर भी कर्मों का नियन्त्रण हो गया । दूसरी ओर कर्म भी स्वयं कुछ नहीं कर सकता । वह किसी चेतना शक्तिशाली का सहारा लेकर ही अपना फल देता है, इस प्रकार कर्म ईश्वर के अधीन और ईश्वर कर्म के अधीन बन जाता है । इसकी अपेक्षा स्वयं कर्म में ही अपने फल देने की शक्ति क्यों न स्वीकार कर ली जाए, जिससे ईश्वर का ईश्वरत्व भी सुरक्षित रहे और कर्मवाद में भी किसी प्रकार की बाधा उपस्थित न हो । जैन-दर्शन के अनुसार कर्म स्वयं अपना फल देता है, उसे फल देने के लिए किसी अन्य व्यक्ति एवं अन्य शक्ति की अपेक्षा नहीं रहती । कर्म स्वयं अपनी शक्ति से समय आने पर फल प्रदान कर देता है । ठीक उसी प्रकार जैसे भंग पीने पर वह स्वयं यथासमय अपना फल नशे के रूप में प्रदान करती है । नशा चढ़ने के लिए भंग किसी दूसरे व्यक्ति की अपेक्षा और आवश्यकता नहीं समझती । कर्मवाद और अध्यात्म-शास्त्र
कर्मवाद और अध्यात्म शास्त्र के विशाल एवं विराट भव्य भवन की आधार-शिला है । कर्मवाद हमें यह बतलाता है, कि आत्मा किसी भी शक्तिशाली और रहस्यपूर्ण व्यक्ति की इच्छा के अधीन नहीं है । कर्मवाद हमें प्रेरणा देता है, कि अपने संकल्प और विचार की पूर्ति के लिए किसी अन्य व्यक्ति के द्वार खटखटाने की आवश्यकता नहीं है, आपको जो कुछ पाना है, वह आके अन्दर से उपलब्ध होगा, कहीं बाहर से नहीं । इस विशाल विश्व में कौन किसको क्या दे सकता है ? भीख माँगने से जीवन का कभी उत्थान नहीं हो सकता । किसी की दया एवं करुणा पर क्या कभी किसी का उत्थान एवं विकास हुआ है ? कर्मवाद कहता है, कि अपने पापों का नाश करने के लिए एवं अपने उत्थान के लिए हमें किसी शक्ति के आगे दया की भीख माँगने की आवश्यकता नहीं है और न किसी के आगे रोने तथा गिड़गिड़ाने की ही आवश्यकता है । कर्मवाद का यह भी मन्तव्य है, कि संसार की समग्र आत्माएँ अपने मूल-स्वरूप से एक समान हैं, उनमें किसी प्रकार का भेद नहीं है । फिर भी इस दृश्यमान जगत में जो कुछ विभेद नजर आता है, वह सब कर्मकृत है । जैन-दर्शन के कर्मवाद के अनुसार जो आत्मा विकास की चर्म सीमा पर पहुँच जाता है, वह परमात्मा बन जाता है । आत्मा की शक्ति कर्म से
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