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________________ कर्म की शक्ति और उसका स्वरूप का पुरुषार्थ कल का कर्म बन जाता है । अतः पुरुषार्थ का परित्याग करके अपने जीवन की बागडोर को भाग्यवाद के हाथों में सौंपकर मनुष्य वीर्यहीन एवं शक्तिहीन बन जाता है । मनुष्य के जीवन की इससे अधिक भयंकर विडम्बना और विषमता क्या हो सकती है, कि वह एक चेतना-पुंज होकर भी, अनन्त शक्ति का अधिनायक हो सकती है, अधिनायक होकर भी जड़ कर्म के अधीन बन जाता है । पुरुषार्थवाद - मूलक कर्मवाद हमें उत्साह वर्धक प्रेरणा देता है, कि भाग्यवाद से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जब आपके इस भाग्य का निर्माण आपके अतीत काल के पुरुषार्थ से हुआ है, तब आप यह विश्वास क्यों नहीं करते, कि भविष्य में, मैं अपने पुरुषार्थ एवं प्रयत्न से अपने भाग्य को बदल भी सकता हूँ, बुरे से अच्छा भी बना सकता हूँ । जैन दर्शन के कर्मवाद में मनुष्य अपने भाग्य की एवं नियति-चक्र की कठपुतली मात्र नहीं है, इस आधार पर वह अपनी विवेक - शक्ति से तथा अपने पुरुषार्थ एवं प्रयत्न से अपने कर्म को, अपने भाग्य को और अपने नियति-चक्र को वह जैसा चाहे वैसा बदलने की क्षमता, योग्यता और शक्ति रखता है । अतः जैन दर्शन के कर्मवाद में पुरुषार्थवाद एवं प्रयत्नवाद को पर्याप्त अवकाश है । ईश्वर और कर्मवाद ईश्वरवादी दर्शनों के अनुसार ईश्वर जीवों के कर्मों के अनुसार ही उनके सुख-दुःख की व्यवस्था करता है । यह नहीं, कि अपने मन से ही वह किसी को मूर्ख बनाए और किसी को विद्वान । किसी को कुरुप बनाए और किसी को सुन्दर । किसी को राजा बनाए तो किसी को रंक । किसी को रोगी बनाए तो किसी को स्वस्थ । किसी को विपन्न बनाए, तो किसी को सम्पन्न । जैसे जीवन के भले-बुरे कर्म होते हैं, वैसी ही वह व्यवस्था कर देता है । किसी भी जीव के जीवन में जब यह किसी भी प्रकार का परिवर्तन करता है, तब पहले वह उस जीव के कर्मों का लेखा-जोखा देख लेता है, उसी के अनुसार वह उसमें परिवर्तन कर सकता है । निश्चय ही यह उस सर्व शक्तिमान ईश्वर के साथ एक खिलवाड़ है । एक तरफ उसे सर्वशक्तिमान मानना और दूसरी ओर उसे स्वतन्त्र होकर अणुमात्र भी परिवर्तन का अधिकार न देना निश्चय ही ईश्वर की महती विडम्बना है । यहाँ पर इस कथन से यह सिद्ध होता है, कि कर्म की शक्ति ईश्वर से भी अधिक बलवती है । ईश्वर को भी उसके अधीन Jain Education International For Private & Personal Use Only १६६ www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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