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समाज और संस्कृति
से पूर्व जीव सिद्ध बुद्ध एवं मुक्त दशा में रहा होगा ? फिर वह कर्म से लिप्त कैसे हो गया ? यदि अपने शुद्ध स्वरूप में स्थित जीव कर्म से लिप्त हो सकता है, तो सिद्ध आत्मा भी कर्म से लिप्त क्यों नहीं हो जाते ? इस प्रकार संसार और मोक्ष का कोई महत्व न रहेगा, कोई व्यवस्था न रहेगी । इसके अतिरिक्त कर्म सन्तति को सादि मानने वालों को यह भी बताना होगा, कि कब से कर्म आत्मा के साथ लगे और क्यों लगे ? इस प्रकार किसी प्रकार का समाधान नहीं किया जा सकता । इन सब तर्कों से यही तथ्य सिद्ध होता है, कि आत्मा के साथ कर्म का अनादि काल से सम्बन्ध रहा है ।
कर्म-बन्ध के कारण
प्रश्न होता है, कि यह मान लिया जाए, कि जीव के साथ कर्म का अनादि सम्बन्ध है । परन्तु इस तथ्य को स्वीकार करने पर यह प्रश्न सामने आता है, कि बन्ध किन कारणों से होता है ? उक्त प्रश्न के समाधान में कर्म-ग्रन्थों में दो अभिमत उपलब्ध होते हैं पहला कर्म - बन्ध के कारण पाँच मानता है— जैसे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । दूसरा केवल कर्म-बन्ध के कारण दो ही मानता है— कषाय और योग । यहाँ पर यह समझ लेना चाहिए, कि कषाय में मिथ्यात्व, अविरति और प्रमाद अन्तर्भूत हो जाते हैं । अतः संक्षेप की दृष्टि से कर्म-बन्धन के हेतु दो और विस्तार की अपेक्षा में कर्म-बन्धनके हेतु पाँच हैं । दोनों अभिमतों में कोई मौलिक भेद नहीं है ।
कर्म-ग्रन्थों में बंन्ध के चार भेद बताए गये हैं— प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश । इनमें से प्रकृति और प्रदेश का बन्ध, योग से होता है तथा स्थिति और अनुभाग का बन्ध, कषाय से होता है । जिस प्रकार मकड़ी अपनी ही प्रवृत्ति से अपने बनाए हुए जाले में फँस जाती है, उसी प्रकार यह जीव भी अपनी राग-द्वेष रूप प्रवृत्ति से अपने आपको कर्म पुद्गल के जाल में फँसा लेता है । कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति अपने शरीर में तेल लगा कर यदि धूलि में लेटे, तो धूलि उस शरीर चिपक जाती है, इसी प्रकार आत्मा के राग-द्वेष रूप परिणामों से जीव भी पुद्गलों को ग्रहण करता है और कषाय भाव के कारण उन कर्म - दलिकों का आत्म-प्रदोशों के साथ संलेष हो जाता है और वस्तुतः यही बन्ध है ।
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