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________________ कर्म की शक्ति और उसका स्वरूप बहुत्व का भी भेद जीव कर्म ग्रहण के समय ही करता है । इस तथ्य को समझने के लिए आहार का दृष्टान्त दिया जाता है । सर्प और गाय को भले ही एक जैसा भोजन एवं आहार दिया जाए, किन्तु उन दोनों की परिणति विभिन्न प्रकार की होती है । कल्पना कीजिए सर्प और गाय को एक साथ और एक जैसा दूध पीने के लिए दिया गया, वह दूध सर्प के शरीर में विष रूप में परिणत होता है और गाय के शरीर में दूध, दूध रूप में ही परिणत होता है । ऐसा क्यों होता है ? इस प्रश्न के समाधान में कहा गया है, कि—आहार का यह स्वभाव है, कि वह अपने आश्रय के अनुसार परिणत होता रहता है । एक ही समय में पड़ी वर्षा की बूंदों का आश्रय के भेद से भिन्न-भिन्न परिणाम देखा जाता है । जैसे कि स्वाति नक्षत्र में गिरी बूंदें सीप के मुख में जाकर मोती बन जाती हैं और सर्प के मुख में विष । यह तो भिन्न-भिन्न शरीरों में आहार की विचित्रता दिखलाई । किन्तु एक शरीर में भी एक जैसे आहार के परिणाम की विचित्रता देखी जाती है । शरीर द्वारा ग्रहण किया हुआ एक आहार अस्थि, मजा एवं मलमूत्र आदि सार-असार विविध रूपों में परिणत हो जाता है । इसी प्रकार कर्म भी जीव से ग्रहण किए जाने पर शुभ एवं अशुभ रूप में परिणत हो जाते हैं । एक ही पुद्गल वर्गणा में विभिन्नता का हो जाना, सिद्धान्त बाधित नहीं कहा जा सकता है । जीव का कर्म से अनादि सम्बन्ध प्रश्न होता है, आत्मा चेतन है और कर्म जड़ है । इस चेतन आत्मा का इस जड़ कर्म के साथ सम्बन्ध कब से है ? इसके समाधान में कहा गया है कि-कर्म-सन्तति का आत्मा के साथ अनादि काल से सम्बन्ध है । यह नहीं बताया जा सकता, कि जीव से कर्म का सर्वप्रथम सम्बन्ध कब और कैसे हुआ । शास्त्र में यह कहा गया है, कि जीव सदा क्रियाशील रहता है । वह प्रतिक्षण मन, वचन और काय के योगरूप व्यापार में प्रवृत्त रहता है । अतः वह प्रतिसमय कर्म बन्ध करता ही रहता है । इस प्रकार अमुक कर्म विशेष-दृष्टि से आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध सादि भी कहा जा सकता है । परन्तु कर्म सन्तति की अपेक्षा से जीव के साथ कर्म का अनादि काल से सम्बन्ध है । प्रतिक्षण पुराने कर्म क्षय होते रहते हैं और नये कर्म बँधते रहते हैं । यदि कर्म सन्तति को सादि मान लिया जाए, तो फिर कर्म सम्बन्ध - १६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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