________________
कर्म की शक्ति और उसका स्वरूप
प्रश्न शक्ति प्राप्त करने का नहीं है, वह तो आज से ही क्या, अनन्त काल से ही प्राप्त है, मुख्य प्रश्न है, उस शक्ति के जागरण का । आत्म-शक्ति के जागृत होते ही कर्म छिन्न-भिन्न हो जाते हैं ।
जैन दर्शन में कर्म के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है, और जो कुछ लिखा गया है, उसे एक दिन में और केवल एक घण्टे के व्याख्यान में बतला सकना कदापि सम्भव नहीं है, फिर भी मैं, संक्षेप में आपको यह बतलाने का प्रयत्न करूँगा, कि जैन दर्शन के अनुसार कर्म का स्वरूप क्या है और कर्म का फल कर्म करने वाले आत्मा को किस रूप में मिलता है ? इस सन्दर्भ में यह बात भी विचारणीय है, कि आत्मा कर्म कैसे बाँधता है और फिर साधना के द्वारा उससे कैसे विमुक्ति प्राप्त कर सकता है ? कर्म के सम्बन्ध में जितना मनोविज्ञानिक विश्लेषण और दार्शनिक चिन्तन जैन-दर्शन के ग्रन्थों में किया गया है, वह विश्लेषण और वह चिन्तन अन्यत्र आपको इस रूप में उपलब्ध नहीं हो सकेगा । यदि आपने मेरी बातों को शान्त और एकाग्रता से सुना, तो आप इस सम्बन्ध में कुछ समझ सकेंगे । कर्म की. परिभाषा
कर्म की परिभाषा करते हुए कहा गया है, कि आत्म-संबद्ध पुद्गल द्रव्य, कर्म कहा जाता है और द्रव्य-कर्म के बन्ध के हेतु रागादि भाव, भावकर्म माना गया है । आचार्य देवेन्द्र सूरि ने अपने स्वरचित कर्म-विपाक ग्रन्थ में कर्म का स्वरूप बतलाते हुए कहा है
"कीरइ जीएण हेउहिं, जेण तो भण्णए कम्मं ।" कर्म का यह लक्षण द्रव्य कर्म और भाव कर्म दोनों में घटित होता है । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-इन पाँच कारणों से आत्म-प्रदेशों में परिस्पन्दन (कम्पन्न) होता है, जिससे उसी आकाश-प्रदेश में स्थित अनन्तान्त कर्म-योग्य पुद्गल जीव के साथ सम्बद्ध हो जाता है । वह आत्म-सम्बद्ध पुद्गल द्रव्य ही कर्म कहा जाता है । जीव और कर्म का यह सम्बन्ध नीर-क्षीरवत् एवं अग्नि-लोह पिण्डवत् होता है । जीव और कर्म का सम्बन्ध कर्म शास्त्र में दो प्रकार का माना गया है-अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त । सब भव्यों में तो नहीं, प्रायः निकट भव्य जीवों में अनादि सान्त सम्बन्ध रहता है और अभव्य जीवों में तो एकान्ततः अनादि अनन्त सम्बन्ध रहता है । क्योंकि अभव्य जीवों
१८५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org