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ज्ञानमयो हि आत्मा
बन गया है, अथवा पदार्थ ज्ञान बन गया है । ज्ञान, ज्ञान की जगह है और पदार्थ, पदार्थ की जगह है । दोनों को एक समझना एक भयंकर मिथ्यात्व है । ज्ञान का स्वभाव है जानना और पदार्थ का स्वभाव है, ज्ञान के द्वारा ज्ञात होना । केवल ज्ञान एक पूर्ण और निरावरण ज्ञान है । इसीलिए उसमें संसार के अनन्त पदार्थ एक साथ झलक जाते हैं और एक पदार्थ की अनन्त - अनन्त पर्याय भी एक साथ झलक जाती हैं इसीलिए आचार्य ने यह कहा है, कि संसार की सम्पूर्ण पदार्थ मालिका केवल 'ज्ञानी के ज्ञान में प्रतिक्षण प्रतिबिम्बित होती रहती है । केवल ज्ञान अनन्त होता है, इसीलिए उसमें संसार के अनन्त पदार्थों को जानने की शक्ति है । अनन्त ही अनन्त को जान सकता है ।
राग और द्वेष आदि कषाय के कारण निर्मल आत्मा मलिन बन जाता है । आत्मा में जो कुछ भी मलिनता है, वह अपनी नहीं है, बल्कि पर के संयोग से आई है । और जो वस्तु पर के संयोग से आती है, वह कभी स्थायी नहीं रहती । अमल - धवल वसन में जो मल आता है, वह शरीर के संयोग से आता है । धवल वस्त्र में जो मलिनता है, वह उसकी अपनी नहीं है । वह पर की है, अपनी नहीं है, इसीलिए उसे दूर भी किया जा सकता है । यदि मलिनता वस्त्र की अपनी होती, तो हजार बार धोने से भी वह कभी दूर नहीं हो सकती थी । धवल वस्त्र को आप किसी भी रंग में रंग लें, क्या वह रंग उसका अपना है ? वह रंग उसका अपना नहीं है । जैसे संयोग मिलते रहे, वैसा ही उसका रंग बदलता रहा । अतः वस्त्र में जो मलिनता है अथवा रंग है, वह उसका अपना नहीं है, वह पर- संयोग जन्य है । विजातीय तत्व का संयोग होने पर, पदार्थ में जो परिवर्तन आता है, जैन दर्शन की निश्चय - दृष्टि और वेदान्त की परमार्थ - दृष्टि उसी स्वर में स्वीकार नहीं करती । जो भी कुछ पर है, यदि उसे अपना मान लिया जाए, तो फिर संसार में जीव और अजीव की व्यवस्था ही नहीं रहेगी । पर संयोग - जन्य राग-द्वेष को यदि आत्मा का अपना स्वभाव मान लिया जाए, तो करोड़ वर्ष की साधना से भी राग-द्वेष दूर नहीं किए जा सकते ।
जैन- दर्शन के अनुसार आत्मा ज्ञानावरणादि कर्म से भिन्न है, शरीर आदि नोकर्म से भिन्न है और कर्म -संयोगजन्य रागादि अध्यवसाय से भी भिन्न है । कर्म में, मैं हूँ, और नोकर्म में, मैं हूँ, इस प्रकार की बुद्धि तथा यह कर्म और नोकर्म मेरे हैं, इस प्रकार की बुद्धि, मिथ्या दृष्टि है ।
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