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________________ समाज और संस्कृति गई । पर सूक्ष्मता से देखा जाए, तो सुई ने प्रत्येक पत्ते को क्रमशः ही पार किया है, किन्तु यह काल-गणना सहसा ध्यान में नहीं आती । शत-पत्र कमल-भेदन में कालक्रम की व्यवस्था है, किन्तु उसकी प्रतीति हमें नहीं होने पाती है । और फिर पत्ते में केवल वर्ण ही नहीं होता, वर्ण के अतिरिक्त उसमें गन्ध, रस, और स्पर्श आदि भी रहते हैं, किन्तु जब हम नेत्र के द्वारा पत्ते को देखते हैं, तब उसके रूप का ही हमें परिज्ञान होता है । जब हम उसे सुँघते हैं, तब हमें उसके गन्ध का ही परिज्ञान होता है, रूप का नहीं । जब हम उसको अपनी जिह्वा पर रखते हैं, तब हमको उसके रस का ही परिबोध होता है, वर्ण और गन्ध का नहीं । जब हम उसे हाथ से छूते हैं, तब हमें उसके स्पर्श का ही ज्ञान होता है, वर्ण, गन्ध और रस का नहीं । जब हम तज्जन्य शब्द को सुनते हैं तब शब्द का ही हमें ज्ञान होता है, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श का नहीं । फिर हम यह कैसे दावा कर सकते हैं, कि हमने नेत्र से पत्ते को देखकर उसके सम्पूर्ण-रूप का ज्ञान कर लिया । जब तक हमारा ज्ञान सावरण है, तब तक हम किसी भी वस्तु के सम्पूर्ण रूप को जान नहीं सकते । सावरण ज्ञान खण्ड-खण्ड में ही वस्तु का परिज्ञान करता है । वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान तो एकमात्र निरावरण केवल ज्ञान में ही प्रतिबिम्बित हो सकता है । इसीलिए एक आचार्य ने कहा है "दर्पण-तल इव सकला प्रतिफलति पदार्थ-मालिका यत्र ।" जिस प्रकार दर्पण के सामने आया हुआ पदार्थ उसमें प्रतिबिम्बित हो जाता है, उसी प्रकार जिस ज्ञान में अनन्त-अनन्त पदार्थ युगपद् झलक रहे हों, वह ज्ञान केवल ज्ञान है । केवल ज्ञान आवरण रहित होता है । उसमें किसी प्रकार का आवरण नहीं रह पाता । अतः पदार्थ का सम्पूर्ण रूप ही उसमें प्रतिबिम्बित होता है । दर्पण में जब किसी भी पदार्थ का प्रतिबिम्ब पड़ता है, तब इसका अर्थ यह नहीं होता है, कि पदार्थ दर्पण बन गया अथवा दर्पण पदार्थ बन गया । पदार्थ, पदार्थ के स्थान पर है और दर्पण, दर्पण के स्थान पर है । दोनों की अपनी अलग-अलग सत्ता है । दर्पण में बिम्ब के प्रतिबिम्ब को ग्रहण करने की शक्ति है और बिम्ब में प्रतिबिम्ब होने की शक्ति है । इसीलिए दर्पण में पदार्थ का प्रतिबिम्ब पड़ता है । केवल ज्ञान में पदार्थ को जानने की शक्ति है, और पदार्थ में ज्ञान का ज्ञेय बनने का स्वभाव है । जब ज्ञान के द्वारा किसी पदार्थ को जाना जाता है, तब इसका अर्थ यह नहीं होता, कि ज्ञान पदार्थ १७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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