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________________ मनुष्य स्वयं दिव्य है शुद्ध निमित्त भी अशुद्ध बन जाता है । इस सब पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए । सोचना चाहिए, कि हम जो कुछ साधना कर रहे हैं, उसका रस और उसका सार हमारे जीवन की धरती पर उतरा है, अथवा नहीं । भगवान् महावीर हों अथवा अन्य कोई तीर्थंकर अथवा कोई समर्थ आचार्य हों—इन सबका कार्य केवल जागरण करा देना ही है । महापुरुषों की वाणी का उपयोग जीवन में इतना ही है, कि हमें अपने गन्तव्य मार्ग का ज्ञान हो जाए । परन्तु उस मार्ग पर चलना अथवा नहीं चलना, यह हमारा अपना काम है । महापुरुष की वाणी, गुरु की शिक्षा और शास्त्र का ज्ञान, यह हमारे मन के जागरण में निमित्त है । उपादान तो हम स्वयं हैं । देखिए, सूर्य के उदय होने पर सरोवर में कमल स्वयं खिल जाता है । सूर्य उसे पकड़ कर विकसित नहीं करता । यदि कमल में स्वयं विकसित होने की शक्ति नहीं है तो आकाश में एक सूर्य क्या, हजार सूर्य के आने पर भी कमल खिल नहीं सकेगा । यह सब उपादान की ही महिमा है । शास्त्रकार हमें बतलाते हैं, कि हमें अपने जीवन को किस मार्ग पर और कैसे चलाना चाहिए ? परन्तु यदि मन में वैराग्य भाव नहीं है और संयम - पालन की क्षमता नहीं है, तो शास्त्र - स्वाध्याय से भी हमें कुछ लाभ नहीं हो सकता । आपने राजर्षि नमि की जीवन-गाथा सुनी होगी । नमि मिथिला नरेश थे । उनके पास विशाल साम्राज्य था । भोग और विलास में डूबे रहना ही, मिथिला नरेश नमि का काम था । भोग के अतिरिक्त योग और वैराग्य की ओर कभी उनका ध्यान ही नहीं गया था । जब एक बार उनके शरीर में दाह ज्वर उत्पन्न हो गया, तब वे बड़े हैरान और परेशान थे । उपचार कराने पर भी जब उनका रोग शान्त नहीं हुआ, और उनके हृदय की अशान्ति एवं व्याकुलता अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई, तब सहसा एक दिन कंकण - ध्वनि से उनके हृदय में एक संकल्प जागृत हुआ, कि मेरा यह विराट् साम्राज्य, विशाल परिवार और मेरी यह अथाह धन सम्पत्ति भी मुझे रोग से मुक्त नहीं कर सकी, यह सब व्यर्थ है । इस संसार में सार जैसी वस्तु कुछ भी नहीं है । राजर्षि नमि की चिन्तन - धारा बदल चुकी थी, सोचने का प्रकार बदल गया था । मन में संकल्प जगा, कि मैं इस संसार में अकेला आया था और आज भी मैं इस रोग की भयंकर वेदना को अकेला भोग रहा हूँ, और भी सुनिश्चित है, कि मैं अकेला ही संसार से विदा लूँगा । Jain Education International For Private & Personal Use Only 1 १५३ www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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