________________
समाज और संस्कृति
करते हैं.-राम ने रावण को मारा और कृष्ण ने कंस को मारा । परन्तु यह कथन ठीक नहीं है । राम ने रावण को नहीं मारा, बल्कि रावण की दुर्बलताओं ने ही रावण को मारा । कृष्ण ने कंस को नहीं मारा, बल्कि कंस की दुर्बलताओं ने ही कंस को नष्ट कर दिया । जब तक वृक्ष अन्दर से हरा-भरा रहता है और जब तक उसकी जड़ों में पृथ्वी के अन्दर से जीवन-शक्ति ग्रहण करने की शक्ति रहती है, तब तक बाह्य प्रकृति का कोई भी आघात वृक्ष को नष्ट नहीं कर सकता । भले ही कितनी भी धूप और वर्षा क्यों न आ जाएँ, उस वृक्ष का वे कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते, जिसकी जड़ें सजीव हैं, मजबूत हैं । मानव-जीवन के सम्बन्ध में भी यही सत्य है । जब तक मनुष्य अपने अन्दर में पवित्र रहता है, तब तक बाहर की किसी भी अपवित्रता का प्रभाव उसके जीवन पर नहीं पड़ सकता । यह एक अटल सिद्धान्त है । __मैंने कहा, कि साधना का कुछ भी रूप क्यों न हो, आवश्यकता इस बात की है, कि उसमें सहज भाव होना चाहिए । जब तक साधना का रस अन्तर् हृदय में नहीं उतरता है, तब तक कुछ भी नहीं है । साधना कोई ऐसा बीज नहीं है, जिसे बाहर से अन्दर में डाल दिया जाए । गुरु
और शास्त्र का काम इतना ही है, कि साधक की सुषुप्ति को दूर कर दिया जाए । और तो क्या, साधना के बीज अन्दर में डालने की शक्ति तीर्थंकरों में भी नहीं होती । तीर्थंकर भी साधना के बीज दूसरे में डाल नहीं सकते । अगर डाल सकते होते, तो गोशालक के अन्दर भगवान् महावीर ने क्यों नहीं डाल दिया ? उनके युग में हजारों मनुष्य पापी और दुराचारी थे, उनमें क्यों नहीं डाल दिया ? बात यह है, कि कोई भी किसी को कुछ दे नहीं सकता है । जब तक उपादान शुद्ध नहीं है, तब तक निमित्त के मिलने पर भी जीवन में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आता । गोशालक को भगवान् महावीर जैसी परम विभूति का निमित्त मिला था, परन्तु स्वयं उसका उपादान शुद्ध नहीं था । जागरण बाहर का नहीं, अन्दर का ही काम आता है । गोशालक भगवान् की सेवा में लगभग छह वर्ष तक रहा, किन्तु वह उस अमृत के महासागर में भी विष-कण ही ढूँढ़ता रहा । दूसरी ओर हम देखते हैं, कि पावापुरी के समवसरण में उस युग के महापण्डित इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् महावीर के प्रथम दर्शन में ही, सब कुछ प्राप्त कर लिया था । विशेषता उपादान की होती है, निमित्त की नहीं । शुद्ध उपादान के अभाव में
- -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org