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________________ समाज और संस्कृति %3 अपने जीवन में दुःखी और दीन नहीं रह सकता । संसार का कोई भी मंत्र तुम्हारे इस दुर्गुण को नष्ट नहीं कर सकता । तुम्हारा अपना विवेक ही इसे दूर कर सकता है । आवश्यकता है, केवल अपने विवेक को जागृत करने की । प्रत्येक बुराई को तभी दूर किया जा सकता है, जब कि उसके स्थान में किसी अच्छाई को पकड़ा जाए । क्रोध को दूर करना है, तो शान्ति को पकड़ो; अभिमान को दूर करना है तो नम्रता आने दो, माया को दूर करना है, तो सरलता का विकास करो और लोभ को दूर करना है, तो सन्तोष को बलवान बनने दो । सद्गुण के चिन्तन से दुर्गुण स्वतः ही नष्ट हो जाता है । आवश्यकता इसी बात की है, कि हम अपने जीवन के जिस किसी भी दुर्गुण को दूर करना चाहते हैं, उसके विरोधी सद्गुण को पहचानें और इस सद्गुण का ही हम अपने जीवन में विकास करें, यही सबसे बड़ा मंत्र है, और यही साधना है । साधना का अर्थ यह नहीं है, कि आप अपने समग्र कर्तव्यों को जलांजलि देकर किसी एकान्त वन में जाकर ध्यान लगायें । साधना का अर्थ है-अपने मन को और अपने इन्द्रियों को साधना । आप सन्त-जीवन स्वीकार करके भी साधना कर सकते हैं और गृहस्थ-जीवन में रह कर भी साधना कर सकते हैं । परन्तु इस बात को सदा ध्यान में रखिए, कि मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण और विकास तभी होता है, जब उसके जीवन का ध्येय और लक्ष्य स्थिर हो जाए । जब तक संयम की साधना से जीवन की शक्तियों का संयमन और नियमन नहीं होगा, तब तक वस्तुतः हम किसी भी महान उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर सकेंगे । नियम और संयम किसी न किसी लक्ष्य की साधना में ही सम्भव हैं । न केवल यह, कि लक्ष्य के बिना संयम का कुछ अर्थ ही नहीं, बल्कि यह भी सच है, कि संयम की प्रेरणा भी लक्ष्य-प्राप्ति की इच्छा के बिना नहीं मिलती । माँझी को यदि नदी के किनारे पहुँचने की अभिलाषा न हो, तो उसे नाव खेने की प्रेरणा कौन देगा ? जब तक माँझी का लक्ष्य परले किनारे पर पहुँचने का नहीं बनेगा, तब तक वह नदी में इधर-उधर ही भटकता रहेगा । जो लोग संसार-सागर की लहरों पर खेलना ही जीवन समझते हैं, वे कभी भी संयमी जीवन व्यतीत नहीं कर सकते । दूसरे तट पर पहुँचने की इच्छा वाले ही, अपनी जीवन-नौका को एक निश्चित दिशा की ओर खेते हैं । कार्य कैसा भी क्यों न हो, छोटा अथवा बड़ा, उसमें तन्मयता की बड़ी आवश्यकता है । जब तक यह संयम की भावना अथवा - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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