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________________ समाज और संस्कृति मन में सुन्दर विचारों का वर्णन नहीं कर सकते, तो आपका चरित्र भी शानदार नहीं बन सकेगा । काँटे बोकर फूलों की आशा एक प्रकार की मूर्खता ही होगी । याद रखिए, धरती कैसी ही बुरी क्यों न हो, फलों के बीज से काँटों की खेती नहीं हो सकती और धरती कितनी ही अच्छी क्यों न हो, बबूल के बीज से आम के फल नहीं हो सकते । इस मनुष्य को जो कुछ होना है, और जो कुछ पाना है, वह सब कुछ अपने आप में ही खोज करना होगा । अपने आप में खोजने से ही, अपना सुख हमें मिल सकता है । बाहर की भटक से न कभी कुछ मिला है और न कभी कुछ मिल ही सकेगा । मानव जीवन का शास्त्रकारों ने जो इतना यशोगान किया है, वह व्यर्थ नहीं किया है । उसका एक उद्देश्य है और उसका एक लक्ष्य है । मानव-जीवन अन्य जीवनों से श्रेष्ठ और ज्येष्ठ, इसी अर्थ में है, कि वह अपनी साधना के द्वारा अपने समग्र बन्धनों को काटकर मोक्ष एवं मुक्ति प्राप्त कर सकता है, जब कि अन्य किसी जीवन में यह सम्भव नहीं है । जैन- दर्शन के अनुसार मानव-जीवन अपने आप में परिपूर्ण है, जब कि मानव-जीवन से भिन्न जितने भी जीवन हैं, सब अपने आपमें अपूर्ण हैं । बात यह है, कि मनुष्य में एक ऐसी शक्ति है, कि वह अपना सुधार भी कर सकता है और अपना बिगाड़ भी कर सकता है । मनुष्य के जीवन के न विकास का अन्त है और न पतन का ही अन्त है । उत्थान और पतन कहीं बाहर से नहीं आते, वे मनुष्य के अन्दर से ही उत्पन्न होते हैं । जब मनुष्य अपनी दुर्बलताओं का दास बन जाता है, तब वह अनन्त शक्ति - सम्पन्न होते हुए भी कुछ कर नहीं सकता । कितनी विचित्र बात है, कि जो मनुष्य देवताओं का स्वामी है, वह अपनी दुर्बलता के कारण देवताओं का दास बनकर गिड़गिड़ाने लगता है । 1 एक बार की बात है, मैं किसी ग्राम में ठहरा हुआ था । सन्तों को देखकर गाँव के कुछ लोग एकत्रित हो गये थे । उनमें से एक व्यक्ति आगे बढ़कर आया और मेरे समीप आकर बैठ गया । वह विनम्र भाषा में बोला—“यदि आपकी आज्ञा हो, तो मैं कुछ पूछना चाहता हूँ ।" मैंने कहा – “अवश्य पूछो । जो कुछ मुझे आता है, मैं तुम्हें अवश्य बतलाऊँगा । वह व्यक्ति बोला – “महाराज ! मुजे क्रोध बहुत अधिक आता है । जरा-जरा सी बात पर मुझे क्रोध आ जाता है । अपने क्रोध को रोकने का मैं जितना ही प्रयत्न करता हूँ, उतनी ही अधिक - १४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001344
Book TitleSamaj aur Sanskruti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Culture
File Size15 MB
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