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समाज और संस्कृति
मेरे गले नहीं उतरती । मनु नाम का कोई व्यक्ति था या नहीं, इससे मुझे किसी प्रकार का विवाद नहीं है, मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि प्रत्येक मनुज में मन बैठा हुआ है, और वह उसी की संतान है । वह मनु कौन है ? वह मनु अन्य कोई नहीं है, वह मनु है, आपका अपना मन । जो मनन करता है और जो विचार करता है, वही मनुष्य है । इसका फलित अर्थ यही निकलता है, कि प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन का उत्पादक है और अपने जीवन का निर्माता है । मनुष्य के जीवन का निर्माता कौन है ? ईश्वर और प्रकृति, उसके जीवन-निर्माता नहीं हैं । उसके मन का विचार और उसके मन का संकल्प ही उसके जीवन का निर्माता है । वह विचार और वह संकल्प, जो मनुष्य के जीवन का निर्माण करता है, कहीं बाहर से नहीं आता, स्वयं उसके जीवन के अन्दर से ही उत्पन्न होता है । मनुष्य के अन्दर रहने वाले इस विचार और संकल्प को ही मैं मनु कहता हूँ । इसका अर्थ यह हुआ, कि मनुष्य स्वयं अपने विचारों का बाप है, मनुष्य स्वयं अपने विचारों का निर्माता है और मनुष्य स्वयं अपने विचारों का ईश्वर है । जरा इसका दूसरी दृष्टि से विचार कीजिए, तो आपको ज्ञात होगा, कि मनुष्य स्वयं ही अपने विचारों का पुत्र है, क्योंकि अपने विचारों के द्वारा ही उसका निर्माण होता है, और उसके भविष्य का निर्माण होता है । इस दृष्टि से इस विशाल विश्व का प्रत्येक मनुष्य, स्वयं अपने विचारों का पिता भी है और स्वयं अपने विचारों का पुत्र भी है ।
मैं अभी आपके समक्ष मानव-जीवन की परिभाषा और मानव-जीवन की व्याख्या कर रहा था । वास्तव में बात यह है, कि मानव-जीवन की एक परिभाषा और एक व्याख्या नहीं की जा सकती । क्यों नहीं की जा सकती है ? यह प्रश्न आपके मन में उठ सकता है और उठना भी चाहिए । इस प्रश्न के समाधान के लिए, हमें मानव-जीवन की तलछट में पहुँचना होगा, वहाँ पहुँचकर ही इसका समाधान हम पा सकेंगे । बात यह है, कि मानव-जीवन के दो पक्ष हैं-एक शुभ, दूसरा अशुभ । एक अच्छा, दूसरा बुरा । एक अमृत दूसरा विष । हमारे सामने सबसे बड़ी समस्या यह है, कि जब हम मनुष्य के जीवन के शुभ पक्ष को पकड़ते हैं, तब उसके जीवन का अशुभ पक्ष हमारी मुट्ठी से बाहर रह जाता है । और यदि अशुभ विष को पकड़ लिया तो अमृत भाग गया, अच्छे को पकड़ लिया तो बुरा दूर भाग गया । यही कारण है, कि मानव-जीवन
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