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५४ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय जैन दर्शन :
कर्म, बन्ध और मोक्ष के विषय में, जैन दर्शन के विद्वान् विचारकों ने पर्याप्त चिन्तन, मनन एवं गम्भीर मन्थन किया है। समस्त जीवों में, तत्त्वतः साम्य है, तो फिर उनमें वैषम्य क्यों नजर आता है। एक जीव में भी काल-भेद से, स्थिति-भेद से और क्षेत्र भेद से वैषम्य क्यों होता है ? इन प्रश्नों का सम्यक् समाधान तथा इस प्रकार के अन्य प्रश्नों का उत्तर कर्मवाद से ही प्राप्त होता है । कर्मवाद, कर्म-मीमांसा एवं कर्म सिद्धान्त, जैनों का अपना स्वतन्त्र चिन्तन रहा है।
कर्म-सिद्धान्त की पृष्ठभूमि पूर्णतः तर्कसंगत है, कार्य-कारण सिद्धांत पर आधारित होने से हम इसे कर्म-विज्ञान भी कह सकते हैं। जैसा कम, वैसा फल । जगत् में यह मान्यता प्राचीनतर काल से ही चली आ रही है । शुभ तथा अशुभ कर्म करने में जीव जैसे स्वतन्त्र है, अपने कर्मों के फल भोग में भी वह, वैसा ही स्वतन्त्र है। फल भोग में, अन्य किसी के अनुग्रह
और निग्रह की आवश्यकता नहीं। जीव अपने वर्तमान एवं भावी का निर्माता स्वयं ही है । कर्मविज्ञान कहता है, कि वर्तमान का निर्माण भूत के आधार पर और भावी का निर्माण वर्तमान के आधार पर होता है । अतीत, वर्तमान और भविष्य की बिखरी कड़ियों को जोड़ने वाला कर्म तत्त्व ही है।
जैन दर्शन में कर्म के दो भेद हैं-भाव कम और द्रव्य कर्म । वस्तुतः अज्ञान, राग और द्वेष ही कर्म हैं। राग से माया और लोभ का ग्रहण होता है । द्वष से क्रोध और मान का ग्रहण हो जाता है। स्व और पर का भेद ज्ञान न होना, अज्ञान तथा दर्शन मोह है। सांख्य, बौद्ध और वेदान्त दर्शन में यही अविद्या के नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि राग-द्वेष ही पाप के प्रेरक हैं, तथापि सबकी जड़ अज्ञान ही है । अज्ञानजन्य इष्ट-अनिष्ट की कल्पना के कारण, जो विकार उत्पन्न होते हैं, वे कषाय, राग एवं द्वेष कहे जाते हैं। जैन दर्शन की परिभाषा में यही भाव कम है, जो जीव का आत्मगत संस्कार विशेष है। आत्मा के चारों ओर तथा ऊपर-नीचे सदा विद्यमान अत्यन्त सूक्ष्म भौतिक परमाणु-पुञ्ज को जो अपनी ओर खींचता है, वह भाव कम है, जो परमाणु-पुञ्ज खिचता है, वह द्रव्य कम है, कार्मण काय है। यही जन्मान्तर में अथवा मरणोत्तर जीवन में, जीव के साथ में जाता है, और स्थल शरीर की निर्मति के लिए, रचना के लिए भूमिका तैयार करता है। अतः आत्मा की सत्ता में विश्वास करने वाले
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