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३६ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय भिन्नता पृथक्त्व है और तद्रूपता न होना, अन्यत्व है। दुग्ध और उसकी धवलता एक ही वस्तु नहीं है, फिर भी दोनों के प्रदेश पृथक-पृथक नहीं है। दण्ड और दण्डी में, पृथक्त्व है, क्योंकि दोनों को पृथक किया जा सकता है। लेकिन द्रव्य, गुण और पर्याय में, इस प्रकार का पृथक्त्व नहीं है। कारण, द्रव्य के बिना गुण एवं पर्याय नहीं रह सकते हैं। जैसे कि जीव देव होता है, मनुष्य होता है और पशु भी होता है। ये सब जीव की पर्याय हैं, इनमें उसका अपना जीवत्व नहीं बदलता । अस्तिकाय और तत्त्व :
प्रत्येक दर्शन में उसके कुछ अपने विशिष्ट शब्द हैं, जिनको पारिभाषिक शब्द कहते हैं। जैन दर्शन में अस्तिकाय इसी प्रकार का एक शब्द है। भारत के अन्य दर्शन ग्रन्थों में इसका प्रयोग और उपयोग उपलब्ध नहीं होता । जैन दर्शन के ग्रन्थों में, बहलता से इसका प्रयोग है। यह शब्द, दो शब्दों के योग से बना है-अस्ति और काय । अस्ति का यहाँ पर अर्थ होता है-प्रदेश और काय का यहां पर अर्थ है-समूह, समुदाय एवं प्रचय । प्रदेशों के प्रचय को अस्तिकाय यहाँ पर कहा गया है। उसके पांच भेद होते हैं। अतः पञ्चास्तिकाय हो गया । षड् द्रव्यों में काल को छोड़कर, शेष पांच अस्तिकाय हैं
१. जीव अस्तिकाय २. पुद्गल अस्तिकाय ३. धर्म अस्तिकाय ४. अधर्म अस्तिकाय ५. आकाश अस्तिकाय
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश- ये पांच द्रव्य अस्तिकाय हैं । जो पदार्थ अस्तित्व स्वभाव वाला हो, और वह अनेक प्रदेशी हो, वह अस्तिकाय होता है। ये पाँच द्रव्य असंख्य प्रदेश वाले हैं। काल द्रव्य अणरूप है। अतः उसके अनेक नहीं होते। काल के अणु पुद्गल आदि के अणुओं की भांति आपस में एकमेक नहीं है, किन्तु रत्नों की राशि के समान एक-दूसरे से भिन्न हैं । अतएव काल एक ही प्रदेश वाला है । जीव की क्रिया में पुद्गल निमित्त है । पुद्गल की क्रिया में काल निमित्त होता है । आकाश द्रव्य लोक और अलोक में सर्वत्र व्याप्त है। धर्म और अधर्म द्रव्य लोक में रहते हैं। जीव और पुद्गल के आधार से काल द्रव्य भी समस्त लोक में परिव्याप्त है । क्योंकि काल द्रव्य के समय तथा घड़ी आदि परिणमन जीव
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