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________________ परिशिष्ट १८३ अर्थ का ज्ञान तो है, परन्तु आगम नहीं है। क्योंकि आगम को परोक्ष के भेदों में गिना गया है। अतः वाक्य रूप निमित्त से इतना विशेष कहा। वाक्य निमित्त से होने वाले अर्थ-शान को आगम कहते हैं-"आप्त-वाक्य निबन्धन-अर्थज्ञान आगमः ।" यह आगम का लक्षण है। __जिस में राग, द्वेष और मोह न हो, और जो यथार्थ ज्ञाता हो, यथार्थ द्रष्टा हो, तथा जो यथार्थ भाषी हो, वह सर्वज्ञ है, वह केवली है, वह सर्वदर्शी है, वह वीतराग है, और वही जिन एवं अहंन् भगवान है, उसकी वाणी ही वस्तुतः आगम कही जा सकती है । अतः आप्त के वचन से होने वाले अर्थ ज्ञान को आगम कहा गया । उपचार से वचन भी आगम है । ६. अर्थ तथा पदार्थ आप्त के लक्षण में कहा गया था, कि आप्त वचन से होने वाले अर्थ ज्ञान को आगम कहते हैं। 'अर्थ ज्ञान' में अर्थ क्या है ? अर्थ अर्थात् पदार्थ । पदार्थ किस को कहते हैं ? अर्थ क्या है ? उत्तर में कहा है"अर्थः अनेकान्तः ।" ज्ञान के विषय को अर्थ कहते हैं । जो अनेकान्त स्वरूप हो, उसको अर्थ कहते है। अर्थ को अभिधेय भी कहते हैं। जिसमें अनेक अन्त, अर्थात् सामान्य, विशेष, पर्याय और गुण रूप धर्म पाए जाए, उसको अनेकान्त कहते हैं । अतः वस्तु एवं अर्थ-अनेक धर्म रूप होता है । ___अनेक पदार्थों के सदृश स्वरूप को सामान्य कहते हैं। जैसे घटत्व । गो में गोत्व और अश्व में अश्वत्व आदि सामान्य है। सामान्य के स्वरूप के सम्बन्ध में, नयायायिक यह कहते हैं, कि वह सामान्य व्यक्ति से सर्वथा भिन्न है, नित्य है, एक है और अनेकों में अनुगत है, उनका यह कथन ठीक नहीं है। __इसी प्रकार विशेष भी है, जिसके ग्रहण से यह घट बड़ा है, यह घट छोटा है, आदि विलक्षण ज्ञान होता है। यह भी पदार्थ से भिन्न नहीं है, नैयायिक विशेष को भी भिन्न मानते हैं । जैन दर्शन में सामान्य और विशेष स्वरूपात्मक पदार्थ ही ज्ञान का विषय है । सामान्य का अर्थ है, द्रव्य और विशेष का अर्थ है, पर्याय । द्रव्य और पर्याय दोनों अलग-अलग नहीं रह सकते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001339
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1992
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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