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लेश्याओं के रूप में चित्रण १७१
मात्र है । उक्त वर्णन पर से जिज्ञासु व्यक्ति अपने को समझ सकता है, कि वह लेश्याओं की किस भूमिका पर अवस्थित है । उसका अन्तर्-जीवन अध: पतन की दिशा में नीचे गिर रहा है अथवा उत्थान की दिशा में ऊपर उठ रहा है ।
उत्तराध्ययन सूत्र में गन्ध, रस और स्पर्श के रूप में भी लेश्याओं के स्वरूप का उद्बोधन किया गया है । अधर्मं लेश्याओं का दुर्गन्ध के रूप में और धर्म लेश्याओं का सुगन्ध के रूप में वर्णन है । अधर्मं लेश्याओं का रस कटु और धर्म - लेश्याओं का मधुर रस बताया गया है । स्पर्श के सम्बन्ध में बतलाया गया है कि अधर्म लेश्याओं का स्पर्श कठोर एवं खुरदरा है तथा धर्म लेश्याओं का स्पर्श कोमल एवं मृदु है ।
अधर्म लेश्याओं में उत्तरोत्तर दुर्भावों की मन्दता होतो जाती है । इसके विपरीत तेजोलेश्या आदि धर्म लेश्याओं में विशुद्ध भावों की पवित्रता उत्तरोत्तर तीव्र तोव्रतर और तीव्रतम होती जाती है अर्थात् उच्चतर और उच्चतम होती जाती है ।
उच्च,
लेश्याओं के स्वरूप बोध के लिए जैन-वाङमय में दृष्टान्तों का भी आधार लिया गया है । मुख्य उदाहरण जाम्बू वृक्ष फलभक्षी अर्थात् जामुन के फल खाने वाले छह मित्रों तथा ग्राम दाहक अर्थात् ग्राम नाशक छह व्यक्तियों के उदाहरण दिए गए हैं।
प्रथम उदाहरण इस प्रकार है- एक ग्राम के निवासी परस्पर प्रगाढ़ स्नेही छह मित्र एक बार वन विहार के लिए वन में गए। इधर-उधर भ्रमण करते रहे । समय पर भूख लगी, तो उन्होंने फलों से लदा हुआ एक विशाल जामुन का वृक्ष देखा । उसे देखकर उनके मन की प्रसन्नता का पार न रहा। वे मित्र तो अवश्य थे, किन्तु उनकी भावों की भूमिकाएँ विभिन्न स्थितियों की थी ।
१. एक मित्र ने अविवेक की अत्यन्त कठोर एवं क्रूर मुद्रा में अपनी तीक्ष्ण कुठार (कुल्हाड़ी) दिखाते हुए कहा- सौभाग्य से यह कुठार भी मैं अपने साथ ले आया हूँ । इसके द्वारा वृक्ष को जड़ से काट देते हैं । तदन्तर चारों ओर घूमते हुए यथेष्ट फल खाएँगे । व्यर्थ ही इतने ऊंचे वृक्ष पर चढ़ने-उतरने का कौन कष्ट करे । मूलोच्छेदन के द्वारा फल खाने में सुविधा भी रहेगी।
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