________________
पाश्चात्य दर्शन को पृष्ठभूमि १५६ मापदण्ड स्थिर किया है, उस पर से उसका भविष्य शानदार प्रतीत होता है।
एक अन्य प्रकार से भी पाश्चात्य दर्शन का विभाजन किया जा सकता है, जो इस प्रकार है
१. ज्ञान-विज्ञान (Epistemnlogy) २. तत्त्व-विज्ञान (Metaphysis) ३. मान-विज्ञान (Exivingy)
इस प्रकार का विभाजन भी पाश्चात्य दर्शन में देखने को मिलता है। इन तीन विभागों में समस्त योरुपीय दर्शन को समेट लिया गया है। इस विभाजन का एक हो उद्देश्य है, कि विषय-प्रतिपादन में सुगमता रह सके।
१. ज्ञान विज्ञान-ज्ञान-विज्ञान दर्शन का मूल उद्देश्य विचार द्वारा विश्व का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना है। पर, इस उद्देश्य को सिद्ध करने की चेष्टा में लग जाने से पहले यह विचार कर लेना आवश्यक है कि ज्ञान सम्भव है अथवा नहीं ? यदि सम्भव है तो कहाँ तक ? उसकी सीमा क्या है ? ज्ञान के उपकरण (Conortions) क्या हैं ? ज्ञान की सत्यता किस प्रकार निर्णय की जा सकती है ? इस प्रकार के ज्ञान सम्बन्धी विषयों की आलोचना दर्शन की जिस शाखा के अन्तर्गत की जाती है, उसे ज्ञान-विज्ञान कहा जाता है।
२. तत्त्व-विज्ञान-इसमें दर्शन को दूसरो शाखा वह है, जिसमें देश, काल, कार्य, कारण, तत्त्व, जड़, प्राण, मन और ईश्वर के स्वरूप की आलोचना की जाती है। इसे तत्त्व-विज्ञान कहा जाता है। इसकी अनेक शाखाएं हो जाती हैं।
३. मान-विज्ञान-यह दर्शन की तीसरी शाखा है, जिसमें मूल्यविषयक विज्ञान की आलोचना की जाती है, तथा सत्य और असत्य, शुभ
और अशुभ एवं सुन्दर और असुन्दर के स्वरूप का निर्धारण किया जाता है । इसे मान-विज्ञान कहा जाता है।
इस प्रकार पाश्चात्य दर्शन में दर्शन शास्त्र के विभाजन की समस्याएं
१ पाश्चात्य दर्शन दर्पण, पृ. ४ और ५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org