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भारतीय दर्शन के सामान्य सिद्धान्त ५ स्पष्ट है, कि भारतीय दर्शन एक बौद्धिक विकास नहीं है, बल्कि वह एक आध्यात्मिक खोज है। भारतीय दर्शन चिन्तन एवं मनन के आधार पर प्रतिष्ठित है, लेकिन उसमें चिन्तन एवं मनन का स्थान आगम, पिटक और वेदों की अपेक्षा गौण है। भारतीय दर्शन की प्रत्येक परम्परा आप्त-वचन अथवा शब्द-प्रमाण पर अधिक आधारित रही है। जैन अपने आगम पर अधिक विश्वास करते हैं, बौद्ध अपने पिटक पर अधिक श्रद्धा रखते हैं, और वैदिक परम्परा के सभी सम्प्रदाय वेदों के वचनों पर ही एकमात्र आधार रखते हैं । इस प्रकार भारतीय दर्शन में प्रत्यक्ष अनुभूति की अपेक्षा परोक्ष अनुभूति पर अधिक बल दिया गया है। भारत के दार्शनिक सम्प्रदाय :
भारत के दार्शनिक सम्प्रदायों को अनेक विभागों में विभाजित किया जा सकता है। भारतीय विद्वानों ने भी उनका वर्गीकरण अनेक प्रकार से किया है । आचार्य हरिभद्र ने अपने “षड्दर्शनसमुच्चय" में, आचार्य माधव के “सर्व दर्शन संग्रह" में, आचार्य शंकर के “सर्व सिद्धान्त संग्रह" आदि में दर्शनों का वर्गीकरण विभिन्न प्रकार से किया गया है। पाश्चात्य-दर्शनपरम्परा के दार्शनिकों ने वर्गीकरण की जो पद्धति स्वीकार की है, वह भी एक प्रकार की न होकर अनेक प्रकार की है। सबसे अधिक प्रचलित पद्धति यह है, कि भारतीय दर्शन को दो भागों में विभाजित किया जाता हैआस्तिक दर्शन और नास्तिक दर्शन । आस्तिक दर्शन इस प्रकार हैं-सांख्य, योग, वैशेषिक, न्याय, मीमांसा और वेदान्त । नास्तिक दर्शन इस प्रकार हैं-चार्वाक, जैन और बौद्ध । परन्तु यह पद्धति न तर्कपूर्ण है और न समीचीन । वैदिक-दर्शनों को आस्तिक कहने का क्या आधार रहा है, यह स्पष्ट नहीं, और नास्तिक दर्शनों को नास्तिक कहने का क्या आधार रहा है ? इसका एकमात्र आधार शायद यही रहा है, कि वे वेद-वचनों में विश्वास नहीं करते । यदि वेद वचनों में विश्वास न करने के आधार पर ही चार्वाक जैन और बौद्धों को नास्तिक कहा जाता है, तब यही मानना चाहिए, कि जो व्यक्ति चार्वाक ग्रन्थों में, जैन-आगमों में और बौद्ध-पिटकों में विश्वास नहीं करते, वे भी नास्तिक ही हैं। इस प्रकार भारत का कोई भी दर्शन आस्तिक नहीं रहेगा । यदि यह कहा जाए, कि जो ईश्वर को स्वीकार नहीं करता, वह नास्तिक है, इस दृष्टि से चार्वाक, जैन और बौद्ध नास्तिक कहे जाते हैं, तब इसका अर्थ यह होगा, कि सांख्य और योग तथा वैशेषिक दर्शन
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