________________
• १०४ अध्यात्म प्रवचन : भाग तृतीय नित्य होते हैं, जबकि उनसे बने हुए द्रव्य विभाज्य और अनित्य होते हैं । विभाजन की यह प्रक्रिया परमाणुओं में जाकर समाप्त हो जाती है । परमाणु का परिमाण सूक्ष्मतम होता है। परमाणु एक-दूसरे में प्रवेश नहीं कर सकते।
वैशेषिक-दर्शन की मान्यता है, कि परमाण नित्य है। ईश्वर भी उनको उत्पन्न या नष्ट नहीं कर सकता। वे ईश्वर की भांति अनादि और अनन्त हैं। वैशेषिक-दर्शन की मान्यता के अनुसार जगत का निर्माण परमाणुओं से हो होता है, जो उसके उपादान कारण हैं। वैशेषिक-दर्शन में ईश्वर को जगत का निमित्त कारण कहा गया है। परमाणु के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए यह भी कहा गया है, कि परमाणु स्वभावतः निष्क्रिय होते हैं । यदि वे निष्क्रिय हैं, तो फिर उनमें गति उत्पन्न कैसे होती है ? यदि गति उत्पन्न नहीं होती है, तो फिर संयोग और विभाग कैसे होंगे ? संयोग और विभाग के अभाव में न तो सृष्टि उत्पन्न हो सकती है, और न ही उसका प्रलय हो सकता है। इन सब प्रश्नों का उत्तर देने के लिए वैशेषिक-दर्शन में एक अदृष्ट नाम का पदार्थ माना गया है। यह अदृष्ट-पदार्थ ही परमाणुओं की गति का और मूर्त द्रव्यों की उत्पत्ति का कारण माना जाता है। पाद के नवीन वैशेषिक दार्शनिकों ने अदष्ट के स्थान पर ईश्वर को मानना प्रारम्भ किया, और कहा कि ईश्वर आत्माओं के अदृष्ट अर्थात् धर्म एवं अधर्म की सहायता से परमाणु में गति उत्पन्न करता है, और जीवात्माओं को सुख एवं दुःख का भोग कराने के लिए उनका संयोग करके मूर्त पदार्थ उत्पन्न करता है । इस प्रकार वैशेषिक दर्शन में अदृष्ट, ईश्वर अथवा धर्म एवं अधर्म की परिकल्पना की गई है । इसकी अपेक्षा तो यही अधिक सुन्दर होता, कि परमाणुओं में स्वभावतः ही गति स्वीकार कर ली जाती। जैसा कि जैन-दर्शन स्वीकार करता है। जैन-दर्शन के अनुसार प्रत्येक परमाणु में गति स्वाभाविक ही है। परमाणुओं का स्वरूप :
पाँच भूतों में से चार परमाणओं वाले हैं, और पांचवा आकाश परमाणुओं से रहित है। आ. श का शेष भूतों से संयोग नहीं होता। क्योंकि वह अमूर्त है। मूर्त द्रव्यों के गूण परमाणओं के गुणों के कारण उत्पन्न होते हैं । पाश्चात्य दार्शनिक लॉक ने रूप, गन्ध, रस, स्पर्श और ताप को गौण गुण तथा गुरुत्व, वेग, संख्या, परिमाण, परत्व और अपरत्व
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org