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________________ ५६ अध्यात्म-प्रवचन की पद्धति उनकी भिन्न है। उनका कथन है, कि एक ज्ञान के बाद एक दूसरा ज्ञान होता है, जिसे अनुव्यवसायात्मक ज्ञान कहते हैं। प्रथम ज्ञान का ज्ञान इस दूसरे ही ज्ञान से होता है। अनुव्यवसायात्मक ज्ञान की कल्पना करके कणाद और गौतम ने एक बहुत बड़ा प्रयत्न यह किया कि उन्होंने ज्ञान को अज्ञेय कोटि से निकाल कर ज्ञेय की कोटि में खड़ा कर दिया। इसका अर्थ यह हुआ कि ज्ञान स्वयं अपने को नहीं जानता, किन्तु उस ज्ञान को जानने के लिए दूसरे ज्ञान की आवश्यकता है और उस दूसरे ज्ञान को जानने के लिए तीसरे ज्ञान की आवश्यकता है। इस पर जैन दर्शन का कथन है, कि यदि उत्तरज्ञान पूर्वज्ञान का ज्ञान करता है, तो फिर उस उत्तरज्ञान का ज्ञान कौन करेगा? इस प्रकार जो सबसे अन्त का ज्ञान है, वह तो अज्ञेय ही रह जाएगा। इस प्रकार अनवस्था दोष भी आया और अन्तिम ज्ञान अज्ञेय ही बना रह गया। इसकी अपेक्षा यही मानना अधिक तर्कसंगत और समुचित होगा कि ज्ञान दीपक के समान दूसरे पदार्थों को जानता है और स्वयं अपने को भी जानता है, बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त रहेगा कि ज्ञान स्वयं अपने को जान कर ही दूसरों को जानता है। ___ दूसरी बात यह है कि यदि प्रथम ज्ञान के लिए दूसरे ज्ञान की कल्पना की जाएगी, तो यह प्रश्न खड़ा होगा, कि पहले ज्ञान की परीक्षा दूसरे ज्ञान ने ठीक रूप में की है या नहीं? अर्थात् उत्तरज्ञान ने पूर्वज्ञान को ठीक रूप में समझा है या नहीं? इसकी परीक्षा के लिए एक तीसरे ज्ञान की कल्पना करनी पड़ेगी। इस दृष्टि से यही अधिक तर्कसंगत है कि ज्ञान को स्व-पर-प्रकाशक मान लिया जाए। इससे न अनवस्था दोष रहेगा और न दूसरे-तीसरे ज्ञान आदि की अनन्त कल्पना ही करनी पड़ेगी। अतः ज्ञान स्व-पर-प्रकाशक ही है। इस सम्बन्ध में मैं आपसे यह कह रहा था कि ज्ञान को दीपक के समान स्व-पर-प्रकाशक मानना ही तर्कसंगत एवं उचित है। यदि ज्ञान में ज्ञेयता नहीं है, तो वह ज्ञान, ज्ञान नहीं कहा जा सकता। जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान को ज्ञेय न मानना उचित नहीं है। जैनदर्शन का यह विश्वास है, कि ज्ञान में एक ऐसी अद्भुत शक्ति है, जो स्वयं को भी जानता है और अपने से भिन्न को भी जानता है। इसी अभिप्राय से जैनदर्शन में ज्ञान को स्वपराभासी कहा है। स्वपराभासी का अर्थ है-स्वयं अपने को और अपने से भिन्न पर-पदार्थ को प्रकाशित करने वाला। जिस प्रकार दीपक दूसरे पदार्थों को प्रकाशित करता है, तो साथ ही वह स्वयं को भी प्रकाशित करता है। स्वयं को प्रकाशित किए बिना वह दूसरे को प्रकाशित नहीं कर सकता। यह कथमपि सम्भव नहीं है, कि दीपक जले और वह दूसरों को प्रकाशित करे, परन्तु स्वयं अप्रकाशित रहे अथवा उसको प्रकाशित करने के लिए दूसरा दीपक जलाना पड़े। इसी प्रकार ज्ञान के सम्बन्ध में भी यही सिद्धान्त है, वह दूसरों को भी जानता है और स्वयं अपने को भी जानता है। इतना ही नहीं, बल्कि स्वयं की जान कर ही वह दूसरों को जानता है। जैनदर्शन के अनुसार ज्ञान न स्वाभासी है और न पराभासी है, बल्कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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