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________________ नय-वाद ४५ करता है, परन्तु सुख पर्याय की आधारभूत आत्मा को गौण रूप से मानता है। ऋजुसूत्र नय भूत और भविष्य काल की पर्याय को नहीं मानता, केवल वर्तमान पर्याय को ही स्वीकार करता है। ऋजुसूत्र की दृष्टि में वर्तमान का धन ही धन है और वर्तमान का सुख ही सुख है, भूत और भविष्य के धनादि वर्तमान में अनुपयोगी हैं। __ ऋजुसूत्र नय के दो भेद हैं-सूक्ष्म ऋजुसूत्र और स्थूल ऋजुसूत्र। जो एक समय मात्र की वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है, उसे सूक्ष्म ऋजुसूत्र कहते हैं। जो अनेक समयों की वर्तमान पर्याय को ग्रहण करता है, उसे स्थूल ऋजुसूत्र कहते हैं। सप्त नयों में पाँचवाँ नय है-शब्द। काल, कारक, लिंग, संख्या, पुरुष और उपसर्ग आदि के भेद से शब्दों में अर्थ-भेद का प्रतिपादन करने वाले नय को शब्द नय कहते हैं, जैसे, मेरु था, मेरु है और मेरु होगा। उक्त उदाहरण में शब्द नय भूत, वर्तमान और भविष्यत् काल के भेद से मेरु पर्वत के भी तीन भेद मानता है। वर्तमान का मेरु और है, भूत का और था, एवं भविष्यत् का कोई और ही होगा। काल पर्याय की दृष्टि से यह सब भेद हैं। इसी प्रकार घट को करता है और घट किया जाता है। यहाँ कारक के भेद से शब्द नय घट में भेद करता है। लिङ्ग, संख्या, पुरुष और उपसर्ग के भेद से भी शब्द नय भेद को स्वीकार करता है। शब्द नय ऋजुसूत्र नय के द्वारा गृहीत वर्तमान को भी लिंग आदि के कारण विशेष रूप से मानता है। जैसे 'तटः तटी, तटम्'-इन तीनों के अर्थों को लिंग भेद से शब्दनय भिन्न-भिन्न मानता है, जब कि मूल में तट शब्द एक ही है। यह शब्द नय की एक विशेषता है। सात नयों में छठा नय है-समभिरूढ़। पर्यायवाची शब्दों में भी निरुक्ति के भेद से भिन्न अर्थ को मानने वाले नय को समभिरूढ़ नय कहते हैं। यह नय कहता है, कि जहाँ शब्द-भेद है, वहाँ अर्थ-भेद अवश्य ही होगा। शब्दनय तो अर्थ-भेद वहीं मानता है, जहाँ लिङ्ग आदि का भेद होता है, परन्तु समभिरूढ़ नय की दृष्टि में तो प्रत्येक शब्द का अर्थ अलग-अलग ही होता है, भले ही वे शब्द पर्यायवाची हों और उनमें लिंग, संख्या एवं काल आदि का भेद न भी हो। जैसे इन्द्र और पुरन्दर शब्द पर्यायवाची हैं, अतः शब्द नय की दृष्टि से इनका एक ही अर्थ है-इन्द्र। परन्तु समभिरूढ़ नय के मत में इनके अर्थ में अन्तर है। 'इन्द्र' शब्द से ऐश्वर्यशाली का बोध होता है, जबकि पुरन्दर' से नगर के विनाशक का बोध होता है। यहाँ दोनों का एक ही व्यक्ति आधार होने से, दोनों शब्द पर्यायवाची बताए गए हैं, किन्तु इनका अर्थ भिन्न-भिन्न ही है। समभिरूढ़ नय शब्दों के प्रचलित रूढ़ अर्थ को नहीं, किन्तु उनके मूल उत्पत्ति अर्थ को पकड़ता है। अतःशब्द नय इन्द्र, और पुरन्दर-इन दोनों शब्दों का एक ही वाच्य मानता है, परन्तु समभिरूढ़ नय की दृष्टि से इन दोनों के दो भिन्न-भिन्न वाच्य हैं, क्योंकि इन दोनों की प्रवृत्ति के निमित्त भिन्न-भिन्न हैं। सात नयों में सातवाँ नय है-एवम्भूत। एवम्भूत नय निश्चय प्रधान होता है, इसलिए यह किसी भी पदार्थ को, तभी पदार्थ स्वीकार करता है, जबकि वह पदार्थ वर्तमान में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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