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३४ अध्यात्म-प्रवचन अप्रमाण ही माना है। मीमांसा दर्शन में अवश्य ही तर्क को प्रमाण कोटि में माना गया है। परन्तु जैन तार्किक प्रारम्भ से ही तर्क के प्रामाण्य को स्वीकार करते हैं। इतना ही नहीं,जैन तर्क-शास्त्र में उसे सकल देशकालव्यापी अविनाभाव रूप व्याप्ति का ग्राहक माना गया है। व्याप्ति-ग्रहण न तो प्रत्यक्ष से हो सकता है, क्योंकि वह सम्बद्ध और वर्तमान अर्थ को ही ग्रहण करता है,जब कि व्याप्ति सकल देशकाल के उपसंहारपूर्वक होती है। अनुमान से भी व्याप्ति का ग्रहण सम्भव नहीं है, क्योंकि प्रकृत अनुमान से व्याप्ति का ग्रहण मानने पर अन्योन्याश्रय दोष आता है और अन्य अनुमान से मानने पर अनवस्था दोष आता है। इसलिए व्याप्ति को ग्रहण करने के लिए तर्क को प्रमाण मानना आवश्यक है।
जैनदर्शन के अनुसार परोक्ष प्रमाण का चतुर्थ भेद है-अनुमान। अनुमान के सम्बन्ध में यह कहा जाता है, कि साधन से साध्य का ज्ञान करना ही अनुमान है। एक चार्वाक दर्शन को छोड़कर भारत के शेष समस्त दर्शनों ने अनुमान को प्रमाण माना है। चार्वाक दार्शनिक अनुमान को इसलिए प्रमाण मानने के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि वह किसी अतीन्द्रिय पदार्थ में विश्वास नहीं रखते। अतः उन्हें अनुमान मानने की आवश्यकता ही नहीं। जिन दर्शनों ने अनुमान को प्रमाण माना है, उन सभी ने अनुमान के दो भेद माने हैंस्वार्थानुमान औपरार्थानुमान। ये दो भेद प्रायः सभी ने स्वीकार किये हैं। परन्तु अनुमान के लक्षण के सम्बन्ध में सबका एक विचार और एकवाक्यता नहीं है।न्याय दर्शन के अनुसार अनुमिति के कारण को अनुमान कहा गया है। वैशेषिक, सांख्य और बौद्ध त्रिरूपलिङ्ग से अनुमेय अर्थ के ज्ञान को अनुमान कहते हैं। मीमांसक नियत सम्बंधैक दर्शनादि चतुष्टय कारणों से होने वाले साध्यज्ञान को अनुमान कहते हैं।
जैनदर्शन के अनुसार अनुमान का लक्षण इस प्रकार है-अविनाभावरूपैकलक्षण। साधन से साध्य के ज्ञान को अनुमान कहा जाता है। वस्तुतः जिस हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव सम्बन्ध होता है, उस साध्याविनाभावी हेतु से जो साध्य का ज्ञान होता है, वही अनुमान है। यदि हेतु साध्य के साथ अविनाभूत नहीं है, तो वह साध्य का अनुमापक नहीं हो सकता है। और यदि वह साध्य का अविनाभावी है तो वह नियम से साध्य का ज्ञान कराएगा। इसी आधार पर जैन तार्किकों ने त्रिरूप या पञ्च रूप लिङ्ग से जनित ज्ञान को अनुमान न कहकर अविनाभावी साधन से होने वाले साध्य के ज्ञान को अनुमान कहा है।
कल्पना कीजिए, एक व्यक्ति कहीं यात्रा करते हुए जा रहा है, उसने दूर पर किसी पर्वत पर धूम उठता हुआ देखा। धूम को प्रत्यक्ष देखकर वह अनुमान करता है, कि उस पर्वत पर धूम है, अतः वहाँ पर अग्नि भी होनी चाहिए। क्योंकि धूम बिना अग्नि के कभी नहीं होता है। इस प्रकार धूम रूप साधन से अग्नि रूप साध्य का ज्ञान करना अनुमान है। साधन से साध्य का ज्ञान जब स्वयं के लिए किया जाता है, तब वह स्वार्थानुमान कहलाता है और जब वह किसी दूसरे को कराया जाता है, तब वह परार्थानुमान कहा जाता है। जैनदर्शन के अनुसार अनुमान प्रमाण होते हुए भी वह परोक्ष प्रमाण है। सभी दार्शनिक अनुमान को परोक्ष प्रमाण मानते हैं, इसमें किसी भी प्रकार का विचार-भेद नहीं है।
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