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२८ अध्यात्म-प्रवचन
___ न्याय-शास्त्र में प्रमाण का सामान्य लक्षण है-'प्रमा का करण'। प्रमा का करण ही प्रमाण है। प्रश्न उठ सकता है, कि प्रमा क्या है ? इसके उत्तर में यह कहा गया है, जो वस्तु जैसी है, उस वस्तु को वैसी ही समझना प्रमा है। रजत को रजत समझना प्रमा है, और शुक्ति को रजत समझ लेना अप्रमा है। करण का अर्थ है-साधकतम। एक कार्य की सिद्धि में अनेक साधन हो सकते हैं, पर वे सब करण नहीं बन सकते। करण तो एक ही होता है। जिस व्यापार के तुरन्त बाद फल की प्राप्ति हो, वही करण होता है। न्याय-शास्त्र में प्रमा के पूर्वक्षणवर्ती करण को ही वस्तुतः प्रमाण कहते हैं। परन्तु प्रश्न उठता है, कि करण है क्या वस्तु? न्यायदर्शन में,जैसा कि मैं पहले आपको बता चुका हूँ, सन्निकर्ष को प्रमा का करण माना है। बौद्ध दर्शन में योग्यता को प्रमा का करण कहा है। जैन दर्शन में ज्ञान ही प्रमा का करण है। सन्निकर्ष तथा योग्यता तो ज्ञान की सहकारी सामग्री है।
प्रमाण-शास्त्र के अनुसार प्रमाण का मौलिक फल है-अज्ञान की निवृत्ति, अनन्तर फल है-अभिमत वस्तु का स्वीकार, अनभिमत वस्तु का परिहार और तटस्थ उपेक्षा। जैनदर्शन में इन्हीं को प्रमाण का फल माना है। परन्तु यह तभी सम्भव हो सकता है, जबकि ज्ञान को ही प्रमाण माना जाए। इसी आधार पर जैनदर्शन में यथार्थ ज्ञान को अर्थात् 'सम्यक् ज्ञान' को प्रमाण माना है।
प्रश्न होता है, कि क्या ज्ञान और प्रमाण एक ही हैं? अथवा उनमें कुछ अन्तर भी है? उक्त प्रश्न के समाधान में कहा गया है, कि दोनों में यही अन्तर है-ज्ञान व्यापक है और प्रमाण व्याप्य है। ज्ञान और प्रमाण में व्याप्य-व्यापक-भाव-सम्बन्ध है। ज्ञान यथार्थ और अयथार्थ दोनों प्रकार का होता है। सम्यज्ञान यथार्थ और संशय आदि मिथ्याज्ञान अयथार्थ। परन्तु प्रमाण तो यथार्थ ज्ञान ही हो सकता है। अतः समस्त जैन तार्किकों ने अपने-अपने प्रमाणलक्षण में किसी न किसी रूप में यथार्थ अथवा सम्यक् ज्ञान को अवश्य ही रखा है। जैन दृष्टि से सम्यक् ज्ञान ही प्रमाण है।
जैनदर्शन में आगम और तत्वार्थभाष्य के समय तक प्रमाण का लक्षण स्पष्ट और परिष्कृत नहीं हो पाया था। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने अपने 'न्यायावतार-सूत्र' में प्रमाण का स्पष्ट लक्षण देकर वस्तुतः जैन प्रमाण-शास्त्र की आधारशिला रखी। आचार्य समन्तभद्र ने जो अपने युग के एक समर्थ आचार्य थे, उन्होंने अपने ग्रन्थों में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के लक्षण का ही समर्थन किया। आगे चलकर अकलंकदेव ने उसे तर्क की कसौटी पर कसा। फिर आचार्य माणिक्यनन्दी, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र और यति धर्मभूषण ने अपने-अपने ग्रन्थों में अपने-अपने ढंग से उसका विशदीकरण किया। परन्तु उपाध्याय यशोविजय ने प्रमाण-लक्षण को नव्यन्याय के नव्य आलोक में पहुंचा दिया। आचार्य सिद्धसेन से प्रारम्भ होकर उपाध्याय यशोविजय तक प्रमाण का लक्षण अधिकाधिक स्पष्ट, परिष्कृत और परिपुष्ट बनता गया।
जैन तार्किकों ने अपने प्रमाण-शास्त्र की परिपुष्टि के साथ-साथ बौद्ध और वैदिक तार्किकों की ओर से उठने वाले तर्कों के तूफान का उत्तर भी दिया। आचार्य अकलंकदेव,
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