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________________ जीवन का नियामक शास्त्र : आचार १६७ कम होने लगा। लोक-सम्पर्क बढ़ने लगा। साधुजन चैत्यवासी भी होने लगे। चैत्यवास के साथ उनके साधनामय जीवन में परिग्रह प्रविष्ट हुआ। इस समय श्रमणों ने अपनी जीवन चर्या में अनेक अपवाद भी स्वीकार किये। अतः उन्हें इस लिखने-लिखवाने की प्रवृत्ति का अपवाद भी स्वीकार करना पड़ा। भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग १000 वर्ष बाद देवर्धिगणि क्षमाश्रमण ने श्रुत को जब पुस्तक बद्ध एवं व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया, तब उनका घोर विरोध हुआ था। अहिंसा के साधकों को यह हिंसा-प्रवृत्ति कैसे स्वीकार हो सकती थी? पर, आज समस्त साधुजन, फिर चाहे वे किसी भी परम्परा के क्यों न हों, देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण का गुणोत्कीर्तन ही करते हैं। पुरातन-युग का निर्ग्रन्थ-संघ पुरातन-युगीन निर्ग्रन्थ-संघ के जीवन पर आचारांग सूत्र में विस्तार के साथ प्रकाश डाला गया है। इतना ही नहीं, बल्कि आचारांग सूत्र का समग्र विधान यह प्रमाणित करता है कि साधु-जीवन का मुख्य ध्येय क्या है और उसे क्या करना चाहिए ? उस समय के निर्ग्रन्थ आचारसम्पन्न, विवेक-सम्पन्न, त्यागी, तपस्वी और श्रुतधर होते थे। उनके जीवन का लक्ष्य जन-सम्पर्क नहीं था, एकान्त में रहकर तप-ध्यान की साधना करना ही था। भगवान् महावीर के समय उत्कृष्ट त्याग, तप एवं संयम के अनेक जीते-जागते आदर्शों की उपस्थिति में भी कुछ श्रमण तप-त्याग अंगीकार करने के बाद भी उसमें स्थिर, दृढ़ एवं कठोर नहीं रह पाते थे। इस प्रकार के अनेक प्रमाण छेदसूत्रों में तथा उनके व्याख्या ग्रन्थ नियुक्ति, भाष्य एवं चूर्णियों में स्पष्ट रूप में आज भी उपलब्ध हैं। यह एक निश्चित बात है कि निर्ग्रन्थों के उपकरणों की संख्या में निरन्तर धीरे-धीरे वृद्धि होती रही है। साधुओं की अपेक्षा साध्वियों के उपकरण और भी अधिक हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन युग से आज तक साधु-जीवन के आचार में आवश्यकता के अनुसार तथा युगानुकूल परिस्थितियों के कारण काफी परिवर्तन होते रहे हैं। महावीर की परम्परा में श्रुत का महत्त्व ___ भगवान महावीर ने धर्म के दो भेद बतलाये हैं-श्रुतधर्म और चारित्र धर्म। पाँच ज्ञानों में से एक श्रुतज्ञान है। श्रुतज्ञान का साधक-जीवन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राचीन काल से ही रहा है। श्रुतज्ञान के बिना आचार एवं उसका स्वरूप ही नहीं जाना जा सकता। अतः श्रुत धर्म की आराधना के बाद ही चारित्रधर्म की आराधना की जा सकती है। आचारांग सूत्र के दो श्रुतस्कन्धों में से प्रथम श्रुतस्कन्ध में आचार के पाँच भेद प्रतिपादित किये गये हैं-१. ज्ञानाचार, २. दर्शनाचार, ३. चारित्राचार, ४. तपाचार और ५. वीर्याचार। इसके अतिरिक्त अन्य कोई आचार नहीं है। जिनवाणी में प्रतिपादित मूलगुण तथा उत्तरगुण आदि सबका समावेश इन पाँचों में ही हो जाता है। इस पंचविध आचार में भी सर्व-प्रथम ज्ञानाचार ही है। ज्ञानाचार को ही आचारांग आदि सूत्रों में श्रुत-धर्म कहा गया है। दर्शनाचार ज्ञानाचार से अभिन्न है। वीर्याचार आत्मा की शक्ति का नाम है। शेष रह जाते हैं-दो-चारित्राचार और तपाचार। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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