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________________ जीवन का नियामक शास्त्र : आचार १६५ भिक्षु और भिक्षुणी को किस प्रकार का जल लेना चाहिए और किस प्रकार का नहीं लेना चाहिए, इसका भी विस्तृत एवं स्पष्ट वर्णन किया गया है। किस प्रकार का पानी भिक्षुक को लेना चाहिए, उसके सम्बन्ध में कहा गया है-तिलोदक, तन्दुलोदक, तुषोदक, आम्रपानक, द्राक्षापानक तथा खजूर का पानी, नारियल का पानी, केर का पानी, इमली का पानी, एवं आंवले का पानी आदि जल साधु के लिए ग्राह्य हैं। भिक्षु को किस प्रकार की भाषा बोलनी चाहिए और किस प्रकार की भाषा नहीं बोलनी चाहिए, इसके सम्बन्ध में भी निश्चित विधान किये गये हैं। भिक्ष किस प्रकार के मकान में रहे और किस प्रकार के मकान में न रहे तथा उसे किस स्थान पर कितना रहना चाहिए और वहाँ से कब विहार कर देना चाहिए; वस्त्र, पात्र, तथा अन्य उपकरणों की याचना किससे और किस प्रकार करनी चाहिए, इसकी सुन्दर व्याख्या की गई है। एक बार भोजन करने का विधान है, एक ही दिन में बार-बार आहार करने का विधान नहीं है। साधु कल्प ___शास्त्रों में अनेक स्थानों पर दस प्रकार के कल्पों का वर्णन किया गया है, जिनका परिपालन मूलगुणों की संरक्षा के लिए आवश्यक है। किन्तु इन कल्पों में कुछ कल्प स्थित हैं, कुछ अनवस्थित। राजपिण्ड एवं प्रतिक्रमण आदि कल्प स्थित नहीं हैं। क्योंकि मध्य के बाईस तीर्थंकरों की परम्परा के अनुसार राजपिण्ड लेना कोई दोष नहीं था तथा प्रतिदिन उभयबेला में प्रतिक्रमण करना आवश्यक नहीं था। परन्तु प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव और चरम तीर्थंकर भगवान महावीर के शासन में राजपिण्ड लेना निषिद्ध माना गया तथा प्रतिदिन उभयबेला में प्रतिक्रमण करना अनिवार्य हो गया। इन दस प्रकार के कल्पों में समयानुसार परिवर्तन होते रहे हैं। अतः दस प्रकार के कल्प उत्तरगुण कहे जाते हैं। क्योंकि उनमें समय-समय पर परिस्थितिवश एवं आवश्यकता के अनुसार परिवर्तन करने की छूट गीतार्थ मुनि को सहज ही उपलब्ध रही है। साधु समाचारी का अर्थ है-साधु-जीवन के लिए नित्य कर्मों की व्यवस्था। रात और दिन में साधु को किस कार्यक्रम के अनुसार अपना साधनामय जीवन व्यतीत करना चाहिए-इस प्रकार का विधि-विधान ही साधु समाचारी है। प्राचीन काल में साधु-समाचारी के अनुसार साधुजन अपना साधनामय जीवन इस प्रकार से व्यतीत करते थे-दिन की प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में आहार-पानी, एवं विहार और चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय। रात्रि में प्रथम पौरुषी में स्वाध्याय, द्वितीय में ध्यान, तृतीय में शयन-निद्रा और चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय। इस समाचारी में स्वाध्याय एवं ध्यान पर विशेष बल दिया गया है। __ वस्तुतः साधु-जीवन की सच्ची साधना, स्वाध्याय एवं ध्यान ही है। भिक्षुणी एवं भिक्षु के जीवन का एक भी क्षण व्यर्थ न जाय तथा प्रमत्त भाव में व्यतीत न हो, इस व्यवस्था का नाम ही वस्तुतः साधु समाचारी है। इस साधु समाचारी के अनुसार जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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