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________________ १६२ अध्यात्म-प्रवचन प्रातिमोक्ष में तीन सौ ग्यारह नियमों की संख्या है। महावग्ग में भगवान बुद्ध की जीवनी से लेकर प्रव्रज्या, उपोसथ, वर्षावास एवं प्रवारणा आदि का वर्णन किया है। चुल्लवग्ग में छोटी-मोटी शिक्षाओं और नियम उपनियमों का विधान किया गया है। जैसे कि स्नान, आभूषण, केश, कंघी, दर्पण, लेप, मालिश, नाच, तमाशा आदि के सम्बन्ध में निषेध किया गया है। अतः विनयपिटक बौद्ध परम्परा के आचार का प्रतिनिधि ग्रन्थ है। परन्तु इसमें कहीं पर भी उपासक एवं श्रावक के आचार का कथन नहीं है। जैन परम्परा में भी यही स्थिति है। आचारांग, आचारचूला और आचारप्रकल्प में कहीं पर भी श्रावक के लिए कुछ भी नहीं कहा गया है। क्योंकि दोनों श्रमण परम्पराएँ संन्यासप्रधान हैं। भिक्षु चर्या प्रधान है। अतः दोनों परम्पराएँ आचार को मुख्यता प्रदान करने वाली रही है। जैन आचार - शास्त्र भारतीय दर्शनों में तत्त्व परिचर्या अपनी चरमसीमा पर पहुँच चुकी है। सांख्य और वेदान्त दोनों ही दर्शन ज्ञानवाद को प्रधानता देते रहे हैं। न्यायदर्शन प्रमाण एवं प्रमेय की चर्चाही अधिक करता है। वैशेषिक दर्शन में तत्त्व मीमांसा बहुत ही सूक्ष्म रूप में की गई है और विशेषतः उसमें परमाणुवाद की चर्चा अत्यन्त गहन एवं जटिल है। वैदिक परम्परा में आचार अथवा क्रियाकाण्ड की विचारणा करने वाले दो दर्शन हैं-मीमांसादर्शन और योगदर्शन। इन दोनों की आचार मीमांसा अथवा क्रियाकाण्ड की विचारणा विभिन्न पद्धतियों पर आधारित है। वैदिक परम्परा में आचार एवं चारित्र शब्द का प्रयोग कम है। उसके स्थान पर कर्म और क्रिया का प्रयोग अधिक हुआ है। मीमांसा यज्ञवादी दर्शन है। आचार के नाम पर यज्ञ की ही क्रियाओं का वर्णन किया गया है। योगदर्शन का आचार-पक्ष आध्यात्मिकता पर अवलम्बित है क्योंकि उसमें चित्तवृत्तियों का अधिक विश्लेषण किया गया है। उसमें इन्द्रिय-दमन और मनोजय के उपाय बतलाये गये हैं। जैन और बौद्ध जैन परम्परा और बौद्ध परम्परा मूलतः आचारवादी परम्पराएँ रही हैं। इन दोनों परम्पराओं में तत्त्व की अपेक्षा आचार की व्याख्या एवं विश्लेषण अधिक हुआ है । परन्तु दोनों परम्पराएँ आचार पर बल देते हुए भी दोनों की पद्धति में महान अन्तर है । बौद्ध परम्परा में आचार के स्थान पर दो शब्दों का प्रयोग हुआ है-शील एवं विनय । शील का सम्बन्ध गृहस्थ-जीवन से अधिक है, भिक्षु-जीवन से कम । किन्तु, विनय का अर्थ बौद्ध परम्परा के अनुसार भिक्षु का आचार अर्थात् साध्वाचार होता है। जैन परम्परा में आचार और चारित्र शब्द का प्रयोग किया गया है। जैन परम्परा का आचारशास्त्र व्यवस्थित, विशाल और बहुआयामी है। जैन परम्परा में धर्म के दो भेद हैं- आगारधर्म एवं अणगारधर्म । इसी को श्रावकाचार और श्रमणाचार भी कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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