SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ अध्यात्म-प्रवचन किया जाता है। अवग्रह का क्या अर्थ है, इस सम्बन्ध में कहा गया है कि- इन्द्रिय और पदार्थ का योग्यदेशावस्थितरूप सम्बन्ध होने पर नाम आदि की विशेष कल्पना से रहित जो सामान्य रूप ज्ञान है, वह अवग्रह है। इस ज्ञान में यह निश्चय नहीं हो पाता कि किस पदार्थ का ज्ञान हुआ । केवल इतना ही परिज्ञान होता है, कि कुछ है। उक्त ज्ञान में सत्तामात्ररूप सामान्यग्राही दर्शन से अधिक विकसित जो बोध होता है, उसे हम पदार्थ का प्रारंभिक अविशिष्ट विशेषरूप सामान्य बोध कह सकते हैं। अवग्रह के दो भेद होते हैं - व्यञ्जनावग्रह और अर्थावग्रह | पदार्थ और इन्द्रिय का संयोग व्यञ्जनावग्रह है । व्यञ्जनावग्रह के बाद अर्थावग्रह होता है । व्यञ्जनावग्रह को अव्यक्त ज्ञान कहा गया है, यही ज्ञान आगे पुष्ट होकर अर्थावग्रह की कोटि में पहुँच कर कुछ-कुछ व्यक्त हो जाता है। उदाहरण के लिए, कुम्भकार के आवा में से एक ताजा सकोरा निकाल कर यदि कोई उसमें एक-एक बूँद्र पानी डालता जाए तो क्या स्थिति होती है ? प्रथम जलबिन्दु गरम सकोरे में पड़ते ही सूख जाता है, इसी प्रकार दूसरा एवं तीसरा आदि - बिन्दु भी सूखते चले जाते हैं। इस प्रकार धीरे-धीरे निरन्तर जल-बिन्दु डालते रहने का परिणाम यह होता है कि फिर उस सकोरे में जल को शोषण करने की शक्ति नहीं रहती और एक-एक बूँद संचित होकर अंततः वह सकोरा जल से भर जाता है। प्रथम बिन्दु से लेकर अन्तिम बिन्दु तक जल उस सकोरे में विद्यमान है, किन्तु प्रथम जल-बिन्दु उसमें अव्यक्त रूप में रहने के कारण दृष्टिगोचर नहीं होता, जबकि व्यक्त जल-बिन्दु दृष्टिगोचर जाता है। जैसे-जैसे जल की शक्ति बढ़ती गई, वह अभिव्यक्त होता गया । यहाँ पर यह समझना चाहिए कि अव्यक्त स्थिति में जो जल-बिन्दु हैं, उनके समान व्यंजनावग्रह का अव्यक्तज्ञान है, और जो जल-बिन्दु व्यक्त हैं उनके समान अर्थावग्रह का व्यक्तज्ञान हैं। यहाँ पर एक प्रश्न यह भी होता है, कि क्या व्यञ्जनावग्रह समग्र इन्द्रियों से हो सकता है, अथवा नहीं? इसके समाधान में कहा गया है कि चक्षु और मन से व्यञ्जनावग्रह नहीं होता, शेष सभी इन्द्रियों से व्यञ्जनावग्रह होता है। चक्षु और मन से व्यञ्जनावग्रह इसलिए नहीं होता है, क्योंकि ये दोनों अप्राप्यकारी इन्द्रियाँ हैं । इन्द्रियाँ दो प्रकार की हैं- प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी । प्राप्यकारी उसे कहा जाता है, जिसका पदार्थ के साथ सम्बन्ध हो । और जिसका पदार्थ के साथ सम्बन्ध नहीं होता उसे अप्राप्यकारी कहा जाता है । व्यञ्जनावग्रह के लिए पदार्थ और इन्द्रिय का संयोग अपेक्षित है । परन्तु चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं, अतः इनके साथ पदार्थ का संयोग नहीं होता। इसी कारण चक्षु और मन से व्यञ्जनावग्रह नहीं होता है। अर्थावग्रह संयोगरूप नहीं होता, वह व्यक्त सामान्य ज्ञान रूप ही होता है। इसलिए चक्षु और मन से सीधा अर्थावग्रह होने में किसी प्रकार की बाधा नहीं आती। अर्थावग्रह पाँच इन्द्रिय और छठे मन से होता है। अर्थावग्रह के सम्बन्ध में कुछ बातें और हैं किन्तु वे तर्क-शास्त्र से अधिक सम्बन्ध रखती हैं। अतः उनका वर्णन यहाँ पर करना उचित नहीं है और वह अधिक गम्भीर भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy