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________________ १३४ अध्यात्म-प्रवचन चतुर्दश नियमों का अथवा इनमें से कुछ का रोज पालन करे। जो वस्तु उपभोग-परिभोग के लिए खुली रखनी हो, उसके उपरान्त सब वस्तुओं का परित्याग कर दे।जो वस्तु खुली रखनी हो, उसकी सीमा एवं मर्यादा कर ले। सप्त व्यसन त्याग . जैन धर्म में समस्त व्यसनों के परित्याग का सुन्दर उपदेश दिया गया है। व्यसन शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, लेकिन दो अर्थ तो अति प्रसिद्ध हैं-प्रथम है, किसी भी प्रकार की बुरी आदत। आदत के परवश होकर, मनुष्य, पशु जैसा बन जाता है। उसे भले-बुरे का जरा भी ध्यान नहीं रहता। वह दारुण पापों में फँस कर अपने अमूल्य मानव जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर देता है। व्यसन शब्द का दूसरा अर्थ होता है-संकट, कठिन संघर्ष और सहसा आ पड़ने वाली आपत्ति एवं दुःख। इस संदर्भ में भी वह जीवन तत्व का शोषण करता है। जैन धर्म की उद्घोषणा है, कि ये सात व्यसन मनुष्य की दुर्गति के कारण है, नरक में जाने के कारण हैं। सप्त व्यसनों का सेवन करने वाला व्यक्ति श्रावक तो क्या, मनुष्य कहलाने का अधिकार भी नहीं रखता। श्रावक-व्रत ग्रहण करने के पूर्व ही सप्त व्यसनों का परित्याग कर देना परम आवश्यक माना गया है। वे सप्त व्यसन इस प्रकार से कहे गए हैं १. द्यूत-क्रीड़ा अर्थात् जुआ खेलना २. चोरी करना ३. शिकार खलना ४. मांस-भक्षण करना ५. मदिरा-पान करना ६. पर-नारी रति ७. वेश्या-गमन जिसको जुआ खेलने की आदत होती है, उसे चोरी करनी पड़ती है। मांस खाने वाले व्यक्ति को शिकार भी करनी पड़ती है। जो मदिरा पान करता है, उसे पर-नारी का सहवास करने की और वेश्या-गमन की भी आदत पड़ जाती है। ये सातों महापाप होते हैं। जुआ से अपरिग्रह व्रत भंग होता है, चोरी से अस्तेय व्रत भंग होता है, मांस और मदिरा से अहिंसा व्रत भंग होता है और पर-नारी एवं वेश्या से ब्रह्मचर्य व्रत भंग होता है। श्रावक के एकविंशति गुण जैन परम्परा के आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में श्रावक के एकविंशति गुणों का वर्णन किया है। ये समस्त गुण व्यवहार और नीति-रीति के नियामक माने जाते हैं। इनका अभ्यास, शिक्षण और आचरण नितान्त आवश्यक है। आचार्य नेमिचन्द्र सूरि ने प्रवचनसारोद्धार में श्रावक के गुणों का कथन इस प्रकार से किया है, कि प्रत्येक श्रावक धीरे-धीरे अभ्यास करके उन्हें अपने जीवन में उतार सकता है। वस्तुतः मानव जीवन के ये नैतिक नियम हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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