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________________ श्रावक के तीन गुण-व्रत १०९ (ग) तिर्यक् दिशा परिमाण अतिक्रमण (घ) क्षेत्र-वृद्धि (ङ) स्मृति अन्तर्धा दिशाओं की गणना तीन प्रकार से की जाती है, जैसे कि तीन दिशाएँ-ऊर्ध्व दिशा, अधो दिशा और तिर्यक् दिशा। तिर्यक् दिशा के चार भेद हैं-पूर्वा, पश्चिमा, उत्तरा और दक्षिणा। चार अनुदिशाएँ हैं, जो चारों के कोण में आती हैं। उपासक ने दिशाओं का जो परिमाण किया है, उसका अतिक्रमण करना अर्थात् उल्लंघन करना, अतिचार दोष है। किसी व्यक्ति ने ऊँची दिशाओं में एक कोश,नीची दिशा में एक कोश और चारों दिशाओं में तथा चारों अनुदिशाओं में पाँच-पाँच कोश की मर्यादा रखी। उससे आगे जाने में अतिचार दोष लगता है। किसी ने एक दिशा की कोश संख्या को घटाकर, यदि अन्य दिशा में बढ़ा दिया है, तो वह क्षेत्र-वृद्धि अतिचार होता है। स्मृति अन्तर्धा का अर्थ है-जो दिशा निश्चित की है, उसकी स्मृति न रहना, यह भी अतिचार दोष है। जाने आने के विशाल क्षेत्र को सीमित क्षेत्र करने की यह एक विधि है। इससे लोभ पर नियन्त्रण होता है। आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने योग-शास्त्र में कहा है-जिस साधक एवं उपासक ने दिशा परिमाण व्रत को अंगीकार किया है, उसने तृष्णा के महासागर को बढ़ने से रोका है। लोभ तथा तृष्णा का महासागर निरन्तर बढ़ता रहता है, उसे रोक देना, दिशा परिमाण व्रत का फल है। उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत २. गुणव्रतों में द्वितीय गुणव्रत है-उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत। भोग की तृष्णा मनुष्य को पतन के गहन गर्त में डाल देती है। भोग-अनन्त हैं, क्योंकि भोग्य भी अनन्त हैं, और भोक्ता भी अनन्त हैं। लेकिन एक मनुष्य, जिसका जीवन सान्त तथा सीमित है, वह अपने अल्प जीवन के क्षणों में कितने भोग्य पदार्थों को भोग सकता है ? कब तक भोग सकता है ?जीवन का अन्त आ सकता है, परन्तु भोगों का अन्त नहीं आ सकता। अतः उपासक एवं श्रावक को या तो भोगों का त्याग कर देना चाहिए, या फिर उनकी मर्यादा बाँध लेनी चाहिए। सन्तोष से ही परम शान्ति का मार्ग उपलब्ध किया जा सकता है। ___ जो वस्तु एक बार उपभोग में आती है, उसे उपभोग कहते हैं। बार-बार उपभोग में आने वाली वस्तु को परिभोग कहते हैं। उपभोग और परिभोग की मर्यादा बाँधने को उपभोग परिभोग परिमाण व्रत कहा गया है। इस गुणव्रत की साधना करने से अहिंसा व्रत की रक्षा होती है, और परिग्रह सीमित होने से सन्तोष गुण की अभिवृद्धि भी होती है। जीवन में सहजता तथा सरलता का आगमन होता है। साधक को मोक्ष का महालाभ भी होता है। क्योंकि भोग का त्याग करने से महारम्भ, महापरिग्रह और महातृत्णा का अन्त हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001338
Book TitleAdhyatma Pravachana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1991
Total Pages170
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Spiritual
File Size10 MB
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