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समभावी साधक : गज सुकुमार
आत्म-भाव से दूर भटक गए हैं, बहुत दूर पड़ गए हैं । इसी से हमारे मन में जलन है, पीड़ा है, दर्द है, अशान्ति है ।
क्षमा
वह क्षमा का देवता हमें सजग कर रहा है कि तू अपने आप को पहचान । तुम्हारी आत्मा अजर-अमर है शरीर को कोई जला दे तो क्या ? शरीर को जलाने से आत्मा जल नहीं सकती । शरीर का खण्ड-खण्ड करने पर भी आत्मा खण्डित नहीं होती । आग शरीर को जलाती है, पर आत्मा को जलाने की शक्ति उसमें नहीं है ।
गज सुकुमार मुनि के मस्तक पर रखी हुई आग प्रतिपल बढ़ रही थी । शरीर के रक्त को चूसने के लिए उसकी सहस्र जिव्हाएँ लपलपा रही थीं । परन्तु भीतरी आग बुझ गई थी । राग-द्वेष की, काम-क्रोध की आग बुझ चुकी थी यदि वह जरा-सी टेढ़ी नजर से सोमल को देख लेता, तो वह उसके सामने ठहर नहीं सकता । परन्तु उस क्षमाश्रमण ने अपनी शक्ति का उपभोग उस पथ - भ्रष्ट ब्राह्मण को भस्म करने में नहीं बल्कि कर्म कचरे को जलाने में किया ।
गज सुकुमार का जीवन केवल पर्युषण के दिनों में एक दिन सुनने एवं सुनाने के लिए नहीं है । वह क्षमा अवतार तो हमारे जीवन का साथी है, उसकी स्मृति हर साँस में बनी रहनी चाहिए । कष्ट के समय जब कभी वह याद आता है तो दुखों के रेगिस्तान को पार करने में उससे जीवन में प्रेरक शक्ति मिलती है । विहार कर रहे हैं, सूर्य तप रहा है, गर्मी बढ़ रही है, प्यास सता रही है अब भी गाँव दूर है, कदम उठाने कठिन हो रहे हैं; उस समय वह क्षमा - सागर याद आता है तो उससे लड़खड़ाती हुई जिन्दगी में दुर्बल मन में अपूर्व शक्ति आ जाती हैं, नई चेतना जाग उठती है । उसका यह ज्योतिर्मय सन्देश हमारे मन में साकार हो उठता है कि जिन्दगी का महत्व दुःख की तप्त दुपहरी में बढ़ते रहने में ही है, शान्त मन से मार्ग तय करने में है । गीदड़ की तरह रोते- तड़पते एवं आँसू बहाते हुए पलायन करने में क्या धरा है ?
एक साधक उल्लास के साथ साधु का बाना धारण करता है । परन्तु जरा-सी दुःख की हवा लगते ही भाग खड़ा होता है; तो वह हतभागा है । पलायन तो नहीं कर सकता पर अन्दर में रोते हुए जिन्दगी गुजार रहा है; तो उससे अधिक हतभागा कौन होगा ? भागना
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