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पर्युषण-प्रवचन
गरज रहा है, परीषहों का तूफान उठ रहा है और उसके बीच वह साधक शान्त भाव से अडिग खड़ा है । सर्प, बिच्छू या हिंसक जानवर आए तो उसे क्या ? राक्षस, भूत-पिशाच का उपसर्ग हुआ तो उसे क्या ? कोई दुष्ट मनुष्य आकर सताए तो उसे क्या ? वह अभय का देवता निर्भय, निर्द्वन्द्व एवं अखेद भव से है खड़ा । उसके मन के किसी कोने में भय की, विषाद की छाया तक नहीं है । उसे तो आज जीवन का फैसला करना है । वह दृढ़ प्रतिज्ञ बन कर खड़ा है – “ कार्यं साधयामि देहं वा पातयामि । " कार्य साध कर ही रहूँगा, भले ही देह गल-गल कर समाप्त हो जाए । परन्तु सिद्धित्व प्राप्त किए बिना यहाँ से एक इंच भी न हहूँगा ।
गज सुकुमार मुनि का जीवन हमारे सामने है । एक दिन में वह सारी भूमिकाओं को पार कर चुका है । बात क्या है ? क्या उसने शास्त्र पढ़े थे ? नहीं, वह द्वादशांगी का एक अक्षर भी नहीं सीख पाया था । साधु जीवन की क्रियाओं को भी वह नहीं सीख पाया । फिर भी उसे सब कुछ आ गया, दह सब कुछ जान गया । व्यवहार दृष्टि से उसने शास्त्र का अनुशीलन नहीं किया । उसने जो कुछ पढ़ा, वह था भगवान का वही एक प्रवचन । वही उसके लिए आचारांग सूत्र था और वही दृष्टिवाद था ।
जिसके अन्तस्तल में ज्ञानालोक का भास्कर प्रकाशित हो उठता है, तो फिर वे बरसों तक उन्हीं पुराने पन्नों को नहीं पलटते रहते, उन्हीं अतीत की कहानियों को नहीं दोहराते । वे तो निरन्तर आगे बढ़ते हैं, विराट् बनते हैं । अग्नि की छोटी-सी चिनगारी घास-फूस को छू जाती है तो फिर वह विराट् बनती रहती है । हवा के झोंके उसे बुझाने को आते हैं, झोके ही नहीं, महाकाय अंधड़ आते हैं, तूफान आते हैं, फिर भी वे उसे बुझा नहीं पाते बल्कि उसे और बढ़ा देते हैं । दीपक की लौ को एक हल्का-सा हवा का झोंका बुझा देता है । क्योंकि दिए की शक्ति छोटे-से घेरे में बन्द है । अतः एक के लिए हवा का झोंका बुझाने का काम करता है तो दूसरी जगह प्रज्वलित करने का ।
जिस साधक के जीवन में चेतना नहीं है तो वहाँ सुख-दुःख के झोंके उसे बुझा सकते हैं । मान-अपमान की दोनों हवाएँ जिन्दगी को समाप्त करती हैं । तलवारें भी जिन्दगी को बर्बाद करती हैं और गले में पड़े हुए सुवासित पुष्प भी जिन्दगी को तर्बाद करते हैं ।
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