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सम्पादकीय
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है । आज का समाज सरस्वती के इस वरद पुत्र को पाकर अपने आप को सौभाग्यशाली समझता है । समाज ने उनके स्वस्थ दृष्टिकोण को अपना लिया है ।
सम्मेलनों के प्रांगण में नर, नारी और बाल एवं वृद्धों ने कवि जी के विचारों को और उनकी युगस्पर्शी वाणी को जी-भर कर सुना है, और चिन्तन-मनन के बाद उसका आचरण करना भी सीखा है । अजमेर सम्मेलन में तथा उससे पूर्व सादड़ी, सोजत और भीनासर सम्मेलन में, रूढ़ और अन्ध-परम्परा के भक्त, कवि जी की नयी विचार-धारा के सम्मुख आत्म-समर्पण कर चुके हैं । उनके नेता और त्राताओं की एक भी युक्ति कवि जी के प्रवीण तर्कों के सम्मुख खड़ी नहीं रह सकी । यही कवि जी के व्यक्तित्व का सबसे बड़ा प्रभावक चमत्कार है । एक के बाद एक होने वाले सम्मेलनों में उनकी सफलता की सिद्धि का यह एक प्रबल प्रमाण है, कि नया और पुराना दोनों ही मानस कवि जी के व्यक्तित्व पर समान भाव से श्रद्धा, आस्था और निष्ठा रखते हैं और जमात की अस्मत को अपने रहनुमा के हाथों में सौंप कर बेफिक्र हैं । कवि जी के व्यक्तित्व का सबसे बड़ा जादू यही है, चमत्कार यही है ।
कवि श्री जी के क्रान्तिकारी विचारों की आलोचना थोड़ी नहीं, बहुत हो चुकी है । आलोचना करने वाले आलोचक अपना भान भी भूल जाते हैं, और वे विचारों की आलोचना करते-करते कभी-कभी द्वेष और घृणा की आग भी उगलने लगते हैं । परन्तु कवि श्री जी कभी भी अपना Balance नहीं खोते । वे विश्व-कवि खलील जिब्रान की भाषा में अपने आलोचकों से मधुर-स्वर में कहते हैं :
You understand us not, but we offer our sympathy to you. (तुम मुझे समझ नहीं सके, फिर भी मैं अपनी सहानुभूति तुम्हें अर्पित करता
कवि श्री जी आशावादी हैं अपने व्यक्तिगत जीवन में भी और समाज-सुधार में भी । अपने जीवन की धरती पर उन्होंने कभी निराशा के बीजों को अंकुरित नहीं होने दिया । वे आशा-भरे स्वर में कहते हैं-"शान्त रहो. अंधेरी रात का अन्त होने पर उजला प्रभात अवश्य ही आएगा । जिसने धैर्य के साथ प्रतीक्षा की है, उसे प्रकाश अवश्य मिलेगा । आशा के प्रकाश को जो प्यार करता है, प्रकाश भी अवश्य ही उसे प्यार करेगा ।"
“Be silent, until Dawn comes, for he who patiently awaits the mom will meet him surely, and he who loves the light, will be loved by the light." __ प्रस्तुत पुस्तक “पर्युषण-प्रवचन" में उनके पर्युषण-पर्व के विचारों का संकलन और सम्पादन मैंने किया है । इसमें जयपुर, कुचेरा, व्यावर, अलवर और कलकत्ता के प्रवचनों का सार संकलन है । अतः कहीं-कहीं पर पुनरुक्ति का आभास भी पाठकों को मिल सकता है । परन्तु प्रवक्ता के स्वतन्त्र चिन्तन को सर्वत्र अक्षुण्ण रखने का प्रयत्न किया गया है । मानपाड़ा, आगारा
विजय मुनि १५ जून, १६६४
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