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________________ कर्मयोगी श्रीकृष्ण तीन नाव भरवाए और कहा कि इनको ले जाओ और अपनी शक्ति और श्रम के बल पर व्यापार करो । सेठ यदि भारतीय संस्कृति का उपासक नहीं होता तो पहली बार नाव डूबने पर उस लड़के से कह देता कि-जाओ ! तुम्हारे भाग्य में ही नहीं लिखा है । किन्तु वह जानता था कि जीवन का अर्थ ही अभावों और असफलताओं से जूझना है । दीपक का काम ही अन्धकार से लड़ना है । इसलिए तीन-तीन नाव डूब जाने पर भी उसने तीसरी बार उस लड़के को तीन नाव भर कर दिए । इस बार उसे इतना लाभ हुआ कि पीछे का घाटा सब निकाल लेने पर भी मुनाफा कमा कर आया । तब सेठ ने उसकी पीठ थपथपाई, धीरे-धीरे वह आगे बढ़ने लगा, असफलता के बाद सफलता बहुत मीठी होती है, और साहस भी दुगुना हो जाता है । उसी व्यापार से वह भी सेठ के बराबर का करोड़पति बन गया । यही तो मनुष्य का भाग्य है जो हमेशा अँधेरे में छिपा रहता है । इसीलिए आचार्य चाणक्य ने कहा है - 'पुरुषस्य भाग्य, देवो न जानाति कुतो मनुष्यः' मनुष्य अपने भाग्य पर विश्वास करके गरीबी और अभावों में जूझता हुआ उन्हें पार कर जाता है । श्रीकृष्ण के जीवन की भूमिका भी अभावों और प्रतिकूलताओं से प्रारम्भ होती है, किन्तु अटल विश्वास और साहस के साथ बढ़ते हुए वे उन सबको पार करके जीवन के शाश्वत सत्य को हमारे समक्ष रखते हैं । हमारा भाग्य क्या है, कैसा होने वाला है इसका फैसला कुत्ते बिल्लियों के कान फड़फड़ाने और रास्ते से नहीं होता । कोई मांगलिक सुनकर चलता है और जब एक छींक सुनाई पड़ गई तो घबरा जाता है, मन में अमंगल की कल्पनाएँ होने लगती हैं । पता नहीं एक छींक के कारण मांगलिक सुने हुए सभी मंगल और तीर्थंकर कहाँ चले जाते हैं ? ऐसी धारणाएँ उनके मानस की दुर्बलता और अज्ञानता की सूचक होती हैं । ___ एक बार एक बड़े शहर में चतुर्मास के लिए जाना था । जिस दिन उस नगर में चतुर्मास के लिए प्रवेश करना था उसी दिन एक श्रावक आए और एकान्त में मुझसे कहा कि-आप जिस दिशा से नगर में प्रवेश करने जा रहे हैं उसमें दिशा- शूल का दोष है । अतः नगर की फेरी लगाकर सामने के द्वार से प्रवेश करने के बदले पीछे के द्वार ६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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