SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मयोगी श्रीकृष्ण कंस जो यह मानता था कि संसार मेरे जिलाए जिन्दा रहेगा और मेरे मारे मर जायगा, वह गहरी नींद में सोया रहता है । कृष्ण पक्ष की उस अँधेरी रात में कृष्ण कारागार से निकाले जाकर जमुना पार गोकुल में पहुँचाए जाते हैं । वहाँ भी उनको राजमहल नहीं, किन्तु किसान की झौंपड़ी और पशुओं को पालने वाले ग्वाले के हाथों में सुरक्षित रखा जाता है इस प्रकार उनका बचपन बिल्कुल साधारण लोगों के बीच गुजरता है, जीवन का वह उषा काल कितनी सामान्य स्थिति में बिना शिक्षा और अध्ययन उन चरवाहों और ग्वालों की झौंपड़ियों में धूलधूसरित बाल सखाओं के बीच बीतता है । किन्तु फिर भी अन्दर ही अन्दर महत्वपूर्ण संस्कारों की नई सृष्टि वहाँ बनती जा रही है, जीवन के उदात्त संकल्प वहाँ पर जागृत होते हैं और बल भी पकड़ते जाते हैं । मनुष्य सदा से यह शिकायत करता आया है कि वह विकास के लिए प्रयत्न करता है, आगे बढ़ना चाहता है, किन्तु जीवन की परिस्थितियाँ साथ नहीं होतीं । उसे उन्नति के साधन सुलभ नहीं हो पा रहे हैं, इसलिए उसकी उन्नति रुक रही है इस प्रकार वह हमेशा ही अभावों का एक रोना रोता रहा है, यह निमित्त की एक दृष्टि है, इस दृष्टिकोण पर निर्भर रहने वाला व्यक्ति अपने अन्तरंग की शक्तियों को जागृत करने एवं बाहर के अभावों की दीवारों को तोड़ गिराने में समर्थ नहीं हो सकता । भारत का दर्शन इतिहास यही संदेश देता है कि तुम परिस्थितियों का मुँह मत ताको, अपनी शक्ति पर विश्वास करो, उसे जागृत करो, जीवन में सफलता मिलेगी । अवश्य मिलेगी, यदि एक बार असफलता भी मिलती है तो उसका स्वागत करो, वही असफलता सफलता को साथ में लेकर तुम्हारे द्वार पर आएगी । जो यह कहते हैं कि हमें उन्नति का अवसर नहीं मिलता, इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि उन्हें अपने ऊपर और अपनी अनन्त शक्तियों पर विश्वास नहीं होता है । तुम दीपक नहीं, सूर्य हो जिसने दृष्टि मूँदकर अर्न्तदृष्टि को खोला है, उसे आत्मा के अनन्त सौन्दर्य और असीम शक्तियों के दर्शन हुए हैं, वह कभी भी किसी दूसरे के आसरे पर बढ़ने की आशंका नहीं रखता, स्वयं की शक्ति और प्रकाश पर उसे भरोसा होता है । Jain Education International ६५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy