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क्रान्तिकारी महापुरुष : श्रीकृष्ण
के पास है और गहराई समुद्र के पास । दोनों का कभी मेल नहीं बैठता । किन्तु श्रीकृष्ण के चरित्र को देखकर ऊँचाई और गहराई का मेल बैठाने के लिए महाकवि को बाध्य होना पड़ा । आज के जन-जीवन की भी यही समस्या है । ऊँचे चरित्र में गहराई नहीं होती, और गहरे चरित्र में ऊँचाई नहीं होती । बड़प्पन और गंभीरता इन दोनों गुणों का समन्वय जब तक नहीं हो जाता, तब तक जीवन महान नहीं बन
सकता ।
युद्ध विरोधी विचार के संस्थापक
इसी तरह श्रीकृष्ण के सम्बन्ध में कवियों ने कहा - 'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि ।' श्रीकृष्ण के जीवन का यह भी एक आश्चर्यजनक अध्याय है । एक तरफ वे प्रेम-बन्धन से विभोर हैं तो दूसरी तरफ युद्ध करने में निरत हैं । लोग कहते हैं कि श्रीकृष्ण तो युद्ध के देवता थे । उन्होंने स्वयं भी युद्ध किया और दूसरों को भी लड़ाया । पर यह विवेचन उनके व्यक्तित्व को एकांकी दृष्टि से देखने का परिणाम है । यदि समग्र दृष्टि से देखा जाय, तो हम अनुभव करेंगे कि उनके हृदय में कोमलता और प्यार लबालब भरा था । दृष्टि के दोष को दूर करके यदि महाभारत पढ़ें तो हमें पता लगेगा कि युद्ध श्रीकृष्ण के जीवन में केवल विवशता का अध्याय है । वे युद्ध से बचना चाहते थे । यदि उन्हें युद्ध से घृणा न होती तो दुर्योधन के पास शान्ति का सन्देश लेकर स्वयं उन्हें उपस्थित होने की क्या जरूरत थी । दुर्योधन के दरबार में श्रीकृष्ण दूत बनकर हाजिर हों, इससे बढ़कर उनके शान्ति प्रेमी होने का दूसरा क्या उदाहरण हो सकता है ? मन-मुटाव की परिस्थितियों में दूसरे के घर जाना नम्रता का उत्कृष्ट उदाहरण है । आज कल भी यदि दो भाइयों में झगड़ा हो और विवाह - शादी जैसा अवसर आ जाय तो यही सोचा जाता है कि हमें क्या पड़ी है, हम वहाँ क्यों जाएँ । जाने वाला जाना नहीं चाहता और सामने वाला बुलाना नहीं चाहता । एक मां के दो बेटे, सगे भाई, पर एक दूसरे के घर जाना पसंद नहीं करते, अपने आपको बहुत बड़ा मान लेते हैं । अपने पुराने स्नेह-सम्बन्धों को भी तोड़ डालते हैं । तब भला जहाँ राज्य का झगड़ा हो, वहाँ सुलह के लिए दूत बनकर जाना कितनी बड़ी बात है ! शान्ति प्रेमी ही ऐसा कर सकता है ।
युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया । प्रश्न उठा कि इस
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