SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय संस्करण की भूमिका पर्युषण पर्व जैन परम्परा का चिरपरिचित एवं सर्व परिचित एक महापर्व माना गया है । यह कब से माना गया है ? इस प्रश्न का समाधान दो प्रकार से किया गया है । एक समाधान है, कि अनादि काल से क्योंकि जैन धर्म आनादि काल से है, वह सनातन है । यह एक पौराणिक मन्तव्य एवं मान्यता है । इतिहासकारों का कथन है, कि भगवान् महावीर से इसका प्रारम्भ हुआ, जो आज तक चल रहा है । पर्युषण पर्व के परम पावन अष्ट दिवसों में उपभोग्य वस्तुओं का अधिक से अधिक त्याग करने की परम्परा रही है । प्रवृत्ति मार्ग से हटकर निवृत्ति मार्ग पर चलने का संकल्प किया जाता है । उत्साह एवं उमंग के साथ व्रत-उपवास करते हैं । संयम-नियमों का दृढ़ता से परिपालन करते हैं । विशेषकर के इन पावन दिनों में आबाल-वृद्ध तथा नर-नारी हजारों की संख्या में शास्त्र - श्रवण एवं शास्त्र - वाचन करते हैं । स्वाध्याय करते हैं । ध्यान योग की साधना करते हैं । परस्पर मिलकर धर्म एवं ज्ञान की चर्चा करते हैं । श्रावक तथा श्राविका यथाशक्ति दान करते हैं । इन अष्ट दिनों में दान और दया का विशेष महत्त्व है । पर्युषण प्रवचन का सुन्दर प्रकाशन करके अपने प्रिय पाठकों के कर-कमलों में समर्पित करते हुए महान् हर्ष होता है । प्रस्तुत पुस्तक में अन्तकृतदशांग सूत्र पर दिए गए स्वतन्त्र प्रवचनों का संकलन एवं सम्पादन किया गया है । इसमें कलकत्ता, आगरा, अलवर और जयपुर के प्रवचनों का संग्रह किया गया है । अतएव यत्र-तत्र प्रवचनों में पुनरुक्ति का आभास अध्येताओं को मिल सकता है । परन्तु जहाँ तक हो सका है, पुनरुक्ति से बचने का प्रयत्न किया है । यह ध्यान में रखने योग्य है, कि श्वेताम्बर परम्परा के तीनों पक्षों में पर्युषण पर्व अष्ट दिवसों में दो सूत्रों की वाचना की परम्परा रही है - अन्तकृत दशांग और कल्प सूत्र । दिगम्बरों में यह परम्परा नहीं है । अध्यात्म पर्व पर्युषण के शुभ अवसर पर पाठक गण यदि इससे लाभान्वित हुए, तो हमारा यह परिश्रम सफल होगा । सुदूर प्रान्तों के जिन क्षेत्रों में साधु-साध्वी नहीं पहुँच पाते अथवा जिन क्षेत्रों में वर्षावास नहीं हुआ है, वहाँ के धर्म प्रेमी और स्वाध्याय प्रेमी लोगों के लिए यह प्रकाशन बहुत ही उपयोगी एवं फलवान् सिद्ध होगा । व्याख्यानदाता साधु वर्ग एवं साध्वी वर्ग को भी इस प्रकाशन से पर्याप्त लाभ होगा । अतएव पर्युषण प्रवचन का वर्षों बाद पुनः प्रकाशन किया जा रहा है । प्रस्तुत पुस्तक का प्रथम प्रकाशन सन् १६६४, १५ अगस्त को सन्मति ज्ञान पीठ, आगरा से हुआ था । प्रस्तुत पुस्तक का द्वितीय संस्करण प्रकाशित हो रहा है । काफी समय से यह पुस्तक अनुपलब्ध थी । इधर पाठकों की माँग बढ़ती जा रही थी । इसका यह द्वितीय संस्करण पहले की अपेक्षा भी अधिक सुन्दर तथा अधिक आकर्षक बन गया है । इसका सम्पूर्ण श्रेय रतन आर्ट्स के प्रो० श्री संजय चपलावत Jain Education International ३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy