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पर्युषण पर्व की आराधना
में जैन ग्रन्थों में ही क्या, वैदिक और बौद्ध ग्रन्थों में भी हजारों स्थान हैं जो पर्यों का निर्देश करते हैं । जो पर्व व्यक्ति, समाज, राष्ट्र एवं जीवन के विकास में जितना अधिक योग देता है, वह उतना ही ऊँचा पर्व गिना जाता है । पर्व हमारे जीवन के अन्तर आनन्द का प्रतीक है, सौम्य प्रकृति का चित्रण है । जहाँ जीवन के रस की धारा है, वहीं उत्सव खड़ा हो जाता है । जहाँ जीवन आनन्दमय है, वहाँ उसका रस बाह्य जीवन में, सामाजिक और धार्मिक जीवन में धाराओं के रूप में बहने लगता है । पर जहाँ मन ही मरा हुआ हो, मन में ही मुहर्रम मनाया जा रहा हो, मन का कोना-कोना रो रोकर हाय कर रहा हो तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति, समाज या राष्ट्र के जीवन में पर्व का उदय कैसे हो सकता है ? वहाँ कोई भी पर्व पल्लवित नहीं हो सकता और जीवन में मंगल वेला नहीं आ सकती ।
आज भी भारतवर्ष में पर्यों का वही लम्बा इतिहास उसी क्रम से चल रहा है । यहाँ पर्यों के सम्बन्ध में विशाल साहित्य लाखों पृष्ठों में लिखा पड़ा है । ये पर्व कहते हैं कि भारतवर्ष एक दिन बहुत ऊँचा रहा है, आनन्द का देवता रहा है, रस की उपासना करने वाला रहा है । भारतवर्ष का हृदय केवल एक मास का टुकड़ा ही नहीं रहा, अपितु उसके हृदय में प्रेम की गंगा एवं रस की धारा बहती रही है । वह विश्व को पवित्र विचार देता रहा है और उस हरेक विचार के साथ पर्व है ।।
जैन धर्म का यह पर्युषण पर्व आपके सामने आनन्द की रस धारा लेकर आया है । इसके पीछे कोई रुपये पैसे का या लोभ का आनन्द नहीं है । दिवाली आई, आपने दिए जलाए, एक रुपया निकाला, पूजा की, दक्षिणा दी और लक्ष्मी जी को मस्तक झुका दिया कि तुम मेरी देवता हो, मैंने तुम्हें सर्वस्व अर्पण किया है । इसी प्रकार किसी अन्य पर्व पर शरीर की रक्षा के लिए किसी और देवता को प्रसन्न किया । सौभाग्य से कमाई करने लगे । तो यह रुपये पैसे का आनन्द है । इस आध्यात्मिक पर्व की, पर्युषण पर्व की विलक्षणता कुछ और ही है । इस आनन्द को रुपये पैसे की झंकार में रहने वाले लोग ही सम्भव है, अच्छी तरह न जान सकें । जो शरीर की मोह-माया में रचे-पचे रहते हैं, जरा सी देर में हँसते हैं, जरा सी देर में रोते हैं, जरा कुछ मिल गया तो उछलने लगे, खो गया तो रोने लगे, वे सम्भव है कि इस जीवन की महान् ऊँचाइयों को न छू सकें ।।
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