SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर्युषण-पर्व ओर ले जाने का प्रयत्न करें । जो शुभ अवसर हाथ लगा है, उसे सफल और सार्थक करने का प्रयत्न कीजिए । पर्युषण में क्या करें ? धर्म की साधना करने के लिए यह सबसे सुन्दर अवसर है । 'कल्प-सूत्र' में कहा गया है, कि यह पर्व एक आध्यात्मिक पर्व है । साधु-जनों को और गृहस्थ-वर्ग को इसकी शुद्ध मन से आराधना करनी चाहिए । साधु-वर्ग के लिए इन पर्व-दिवसों में पाँच विशेष कर्त्तव्य बतलाए हैं—सांवत्सरिक-प्रतिक्रमण, केश-लोच, यथाशक्ति तपश्चरण, आलोचना और क्षमापना । विशेष रूप में आलोचना, प्रतिक्रमण और क्षमापना तो होनी ही चाहिए । मन के वैर, विरोध और प्रतिरोध को क्षमा एवं प्रेम के जल से धोकर स्वच्छ और साफ कर लेना चाहिए । मन में किसी के भी प्रति द्वेष और घृणा की भावना नहीं रहनी चाहिए । साधक को विचार करना चाहिए - "रोष-तोष किण सुं करूँ ? आप ही आप बुजाय ॥". इन परम पवित्र पर्यों में गृहस्थों के लिए भी कुछ विशेष कर्त्तव्य बताए गए हैं---'शास्त्र-श्रवण, यथाशक्ति तपश्चरण, अभय-दान, सुपात्र-दान, ब्रह्मचर्य का परिपालन, आरम्भ का त्याग, संघ की सेवा और क्षमापना ।' इसके अतिरिक्त श्रावक को आलोचना और प्रतिक्रमण भी करना चाहिए । वैसे तो प्रतिक्षण जीवन में धर्म की साधना चलती रहनी चाहिए, परन्तु पर्व के दिनों में विशेष विवेक के साथ धर्म की साधना करनी चाहिए । चित्त-विकारों के उपशमन के लिए इससे बढ़कर अन्य अवसर कौन-सा मिलेगा ? आलस्य तथा प्रमाद का परित्याग करके आपको धर्म की साधना के लिए तैयार होना है । यही सन्देश लेकर 'पर्युषण-पर्व' हे द्वार पर आया है । आप इन दिनों में उपवास करते हैं । परन्तु क्या कभी आपने विचार किया, कि "उपवास' शब्द का अर्थ क्या है ? उपवास का अर्थ-भूखा रहना ही नहीं है । आत्मा के समीप वास करना ही वास्तव में उपवास है । साल भर तक आप आत्मा से हटकर इधर-उधर भटकते रहे, पर आज अवसर आया है, कि आप फिर आत्मा के समीप आ जाएँ । 'प्रतिक्रमण' शब्द का अर्थ भी यही है कि वापस ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy