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________________ पशुओं का एक सीमित संसार है, वे अपने से अतिरिक्त अन्य की चिन्ता नहीं रखते । उन्हें अपनी भूख-प्यास एवं सुख-दुख की चिन्ता अवश्य होती है, पर अपने से आगे परिवार में, समाज में, राष्ट्र में कहाँ क्या हो रहा है ? इन चिन्ताओं से वे मुक्त हैं । मनुष्य व्यष्टिगत नहीं, समष्टिगत प्राणी है । उसका क्षेत्र बहुत विशाल है । वह अपने निर्माण के साथ-साथ विश्व के निर्माण की भी योजना बनाता रहता है, विश्वोत्थान के लिए अपने मानस पटल पर नित्य नये चित्र अंकित करता रहता है, नव- 1 - निर्माण का स्वप्न देखता रहता है । यदि मानव अपने स्वार्थ के सीमित दायरे में ही जीवन बता दे और दूसरों के विषय में चिन्ता करना छोड़ दे, परमार्थ भावना को त्याग दे तो पशुओं से श्रेष्ठ कहलाने का अधिकारी नहीं होगा, उसकी गणना भी पशुओं में ही होगी । मानव की महत्ता बताते हुए एक दिन महर्षि व्यास ने अपने शिष्यों से कहा था : "गुह्यं ब्रह्म तदिमं ब्रवीमि न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित् । " " वत्स ! मैं तुम्हें आज एक रहस्य बता रहा हूँ कि विश्व में मानव से श्रेष्ठ कोई नहीं है । पशुओं को ही लीजिए, वे मनुष्य की भाँति सिर आकाश में और पैर पृथ्वी पर रख कर नहीं चल सकते । प्रकृति ने, उनके संस्कारों ने ही उन्हें ऐसा बना दिया है । कि उनका सिर उन्नत रहने के बजाय सर्वदा नीचे की ओर झुका हुआ रहता है । मनुष्य का मस्तिष्क सदैव उन्नत रहता है । मस्तिष्क हमारे विचारों का केन्द्र है और मस्तिष्क आकाश में रहने का अर्थ है कि हमारे विचार भी आकाश की भाँति निर्मल हैं । सूर्य और चन्द्र ऊपर की ओर हैं, अतः मस्तिष्क पर उनकी किरणें, उनका प्रकाश पड़ रहा है । इसका अर्थ है, हमारे विचार भी सूर्य की भाँति प्रकाशमान हैं, चन्द्र की भाँति सुखद हैं और आकाश की भाँति निर्मल और उन्नत हैं । पैर पृथ्वी पर हैं, इसका अर्थ है कि हमारे पैर कर्म क्षेत्र में हैं । मनुष्य अपने सुन्दर आचार और विचार से पृथ्वी पर स्वर्ग का निर्माण कर सकता है । कवि की वाणी में कहें तो : " सन्देश यहाँ मैं नहीं स्वर्ग का लाया । इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया । " कितनी सुन्दर विचार धारा है ? वह तो इस भूमण्डल को ही स्वर्ग बनाना चाहता है । हजारों वर्षों से हमारे विचारकों की यही वाणी गूँजती Jain Education International १७२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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