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________________ धर्म का मूल : विनय भारतवर्ष की संस्कृति और सभ्यता दुनिया की प्रधान संस्कृति और सभ्यता है । भारतीय संस्कृति में विनय का सर्वोपरि स्थान है । फिर भले ही वह साधु - जीवन हो या गृहस्थ जीवन । विनय की आधारशिला पर ही जीवन - प्रासाद का निर्माण किया जाता है । कहा भी हैं - " धम्मस्स विणओ मूलं ।" अर्थात् धर्म का मूल विनय है । मूल में यदि दुर्बलता है, तो शाखा प्रशाखाओं का विकास कभी सम्भव नहीं । नींव के बिना महल खड़ा करने की कल्पना ही नहीं की जा सकती । जीवन में उच्च आचार और विचार, त्याग तप, भगवद् भक्ति एवं तीर्थङ्करों के प्रति गुणानुराग आदि सद्गुण दृष्टिगोचर होते हैं, ये अवश्य ही महत्वपूर्ण हैं, किन्तु विनय से शून्य होने पर ये सद्गुण दुर्गणों के रूप में भी परिवर्तित हो सकते हैं । विनय से ही इन सद्गुणों में चमक आती है । उच्च आचार और उच्च संकल्प स्वरूप ये सद्गुण महल के सुनहरे कलश हैं, जो महल के सर्वोच्च शिखर पर चमकते रहते हैं । आपके जीवन में भी ये सद्गुण, ये कलश तभी चमकेंगे, जब कि आपके जीवन - प्रासाद के नीचे नींव के प्रस्तर - स्वरूप विनय को स्थान मिला हो और सुदृढ़ होगी, महल उतना ही ऊँचा उठाया जा सकेगा । । नींव जितनी गहरी विनय का अर्थ है, नम्रता । जो जितना झुकेगा, वह उतना ही ऊँचा उठेगा । विनय का प्रतिरोधी दुर्गुण है, अभिमान । यदि जीवन में विनय को अपनाना है, तो अभिमान से किनारा करना होगा । विनय हमें सिखाता है कि हम अपने आपको, अपने अभिमान को झुकाएँ । अपने आपको झुकाने का मतलब केवल शरीर झुकाना ही नहीं है, किन्तु अपने आपको, अपनी अन्तरात्मा को झुकाना है । शरीर तो केवल मल-मूत्र का भण्डार है, मांस- पिण्ड है, अस्थियों का ढेर है । यह तो एक प्रतीक है और जब इस प्रतीक को आप अपने माता-पिता और गुरुजनों के प्रति तथा महापुरुषों और सद्गुणी आत्माओं के प्रति झुकाते हैं, तो इसका अर्थ यह है कि आप अपना समस्त जीवन उन महान् आत्माओं को अर्पित कर रहे हैं । मस्तिष्क झुकाने का मतलब है, आप उन सद्गुणों को महत्त्व देते हैं और अपनी सद्भावना प्रकट करते हैं, जो उन विराट् पुरुषों के जीवन में चमक रहे हैं । Jain Education International १६३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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