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मार्ग और मंजिल
प्रकार की मान्यताओं का जाल भारतीय दिमाग को अब भी जकड़े हुए है ।
नास्तिक की शक्ल
किन्तु विचारों की कैद से निकलते हुए स्वतन्त्र चिंतकों ने कभी भी यह घोषित करने का दुस्साहस नहीं किया कि अमुक पुस्तकों और क्रिया-काण्डों पर विश्वास रखने वाला ही आस्तिक है । जो परम्पराओं और क्रिया-काण्डों के दलदल में फँसा हुआ है वह देश, काल, परिस्थिति को सोच नहीं सकता, विचार शक्ति का वहाँ अभाव रहता है, और वह सिर्फ क्रिया काण्डों का गुलाम बन जाता है । उसकी स्थिति तो वैसी ही होती है कि जेठ असाढ़ में पहनने योग्य वस्त्र तो पूष और माघ में पहना जाय और वर्षा ऋतु में लगाने वाला छाता शीत ऋतु में लगाकर निकले । उसके पास प्राणवान् और जीवित क्रियाएँ एवं परमपराएँ नहीं रहती हैं, वह तो सिर्फ परम्पराओं की लाश को ढोता रहता है । किन्तु सच्चा विचारक जो आत्मा की धड़कन को पहचानता है, वह परम्पराओं का गुलाम कभी नहीं होता, हाँ तो हमारे आचार्यों ने बताया कि नास्तिक वह नहीं होता है, जो अमुक ग्रन्थों में विश्वास नहीं रखता । बल्कि नास्तिक वह होता है, जो शरीर का गुलाम होता है । जिससे अनन्त भूत और भविष्य की सत्ता में विश्वास नहीं करके सिर्फ वर्तमान की स्थूल घड़ियों में ही अपने को बन्द कर लिया हो
वर्तमान दृष्टि परो हि नास्तिक:
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वर्तमान दृष्टि में बँधे रहने वाले को ही आचार्यों ने नास्तिक कहा है । सच्चे नास्तिक की तस्वीर यही है कि उसका जीवन के प्रति आदर्शों के प्रति कोई विश्वास या निष्ठा नहीं होती ।
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साधना का दायरा
हमारी साधना का दायरा इतना छोटा नहीं है कि उसमें भूत भविष्य से आँक मिचौनी करके सिर्फ वर्तमान को ही देखा जाए। हमारा विश्वास है कि अतीत में भी हमारी सत्ता थी और भविष्य में भी रहेगी और इस दृष्टि से ही हमारी साधना का मूल्य होता है, हमने जीवन में क्या सत्कर्म किया है जो मुक्ति का सोपान बन सकता है, और वासनाओं के चक्कर में फँसकर कौन-सा दुष्कर्म किया है, जिससे हमारी आत्मा का पतन
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