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________________ पर्युषण-प्रवचन - जो राजा रणक्षेत्र में शत्रुओं के खून से होली खेलता है, कितनी ही माताओं की गोद से उनके लाडले पुत्र छीनता है और कितनी सुहागिनों का सिंदूर लूटता है वह बहुत बड़ी हिंसा करता है, अधर्म करता है, किंतु उस राजा को इस पाप से मुक्ति दिलाने वाला यदि कोई मार्ग है तो वह यही है कि निःस्वार्थ अक्षपात रहित होकर न्याय करे, प्रजाजनों की रक्षा करे और उन्हें न्यायमार्ग की ओर प्रेरित करे । हाँ, तो इस अत्याचार के सामने अर्जुन माली का आक्रोश राजा पर निकल रहा था, फिर उसे अपने कुलदेव मुद्गर पाणि यक्ष पर रोष आया और वह मूर्ति के समक्ष बरस पड़ा—यक्ष की आज तक पीढ़ियों से मेरे पूर्वज ही पूजा करते आये हैं, मैं भी बचपन से तेरी पूजा किए बिना मुँह में अन्नाजल नहीं लेता, मैंने जो कुछ समझा तो तुझे ही समझा, किन्तु तू ऐसा निकला कि तेरी ही आँखों के सामने तेरे भक्त पर अत्याचार हो रहा है और तू सोया पड़ा है, मैंने तुझे देवता समझा, किंतु आज मालूम हुआ है कि तू पत्थर और धातु की प्रतिमा के सिवाय कुछ नहीं है, निरा ढोंग और ढकोसला है । तूने आज तक लिया ही लिया, किन्तु जब देने का समय आया तो तू जड़ बनकर देखता रहा, एक ललकार भी नहीं दे सका, इस प्रकार अर्जुन माली का हृदय आक्रोश से जल रहा था-देवता ने यह दृश्य देखा और अपने भक्त की जलती हुई आत्मा को भी देखा, तत्काल अर्जुन माली के शरीर में अद्भुत पौरुष जाग उठा, तड़-तड़ सब बन्धन टूट गये और यक्ष का मुद्गर उठाकर एक ही प्रहार में छहों मित्रों और अपनी पत्नी को मिट्टी का ढेर बना दिया । इस पर भी उसका उत्कट. क्रोध शांत नहीं हुआ, वह नगरवासी लोगों और राजा पर भी क्रुद्ध हो रहा था कि नगर में इस प्रकार गरीबों के साथ अत्याचार किया जाता है, उन्हें कोई रोकने वाला नहीं, चाहे जैसे मन मानी करें । इस क्रोध में आग बबूला हुआ वह हाथ में मुद्गर लिए बगीचे के बाहर घूमता, और रास्ते से गुजरने वाले राहगीरों में छह पुरुष और एक स्त्री की हत्या करके ही मुँह में अन्न जल लेता । नगर में सनसनी फैल गई चारों तरफ आतंक छा गया इस रास्ते मौत बरसने लगी और आखिर राजा को नगर का द्वार बन्द करवाकर यह घोषणा करनी पड़ी कि कोई भी नगर के बाहर नहीं जायेगा, अन्यथा उसकी रक्षा की कोई भी जिम्मेवारी नहीं है । इस प्रकार समूची राजगृही एक कैदखाना बन रही थी, और उसके निवासी भीतर ही भीतर घुट रहे थे, दम तोड़ रहे थे । - ११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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