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________________ अतिमुक्त कुमार तो आप उसे नास्तिक कह कर कोसने लगते हैं । मैं आपसे पूछू कि इसका उत्तरदायित्व किस पर है ? आप धर्म के, समाज के और विचारों के क्षेत्र में इन बच्चों को बाँध कर रखना चाहते हैं और अगर ये इन्कार कर देते हैं तो इसका उत्तरदायित्व इन पर नहीं डाला जा सकता । पन्थों के नाम पर और सूखे क्रियाकाण्डों के नाम पर ये बच्चे बन्धन में नहीं आना चाहते । हाँ यदि आप धर्म के मूल अर्थों में, पन्थों के सही रूपों में उन्हें अपने नजदीक लाना चाहें तो वे आ सकते हैं । पर इन हथकड़ियों से उसे बाँधना सम्भव नहीं । यदि आपके क्रियाकाण्ड की माला धर्म की सुगन्ध से महक रही है, वह उच्च विचारों और दृढ़ संकल्पों की सुगन्ध से, जैन धर्म की महान् परम्परा की सुगन्ध ओत-प्रोत है, उस माला से भगवान के उपदिष्ट धर्म के सही स्वरूप की सुगन्ध निकल रही है तो वह सुगन्ध उनको अपनी ओर अनायास ही खींच लेगी । फिर आपके लिए उन्हें बाँधने का प्रयास करने की आवश्यकता नहीं रहेगी और न ही फिर उनकी आलोचनाओं से घबरा कर उन्हें नास्तिक कहने का अवसर मिलेगा। नौजवान आगे बढ़ें __ मैं तरुणों से भी कहूँगा कि सुनहरा भविष्य इनका इन्तजार कर रहा है । ये देश के होने वाले आधार-स्तम्भ हैं । देश, धर्म और समाज का भविष्य उनके हाथों में है । यह गुरुतर बोझ उनके कन्धों पर आने वाला है। आने वाला युग इस प्रतीक्षा में है कि कोई माई का लाल आकर एक ही धारा में निरन्तर बहती हुई शिथिल और सुस्त इस परम्परा को, इतिहास को, इसके प्रवाह को एक नया मोड़ दे, नई जिन्दगी और नई चेतना दे और इस प्रकार एक नये भारत का निर्माण करे, उस परम्मपरा की बुझी हुई मशाल में नया तेल डाले, नया जीवन दे ताकि देश का खोया हुआ वैभव पुनः प्राप्त हो सके, यह देश फिर से संसार का धर्मगुरु बन सके और आने वाली मानवता को त्रस्त होने से बचा ले । आज भारतवर्ष के धर्म उनका इन्तजार कर रहे हैं, जिनमें शिथिलता आ गई है और चमक लुप्तप्राय हो गई है । वही धर्म का मर्म आज उनका आह्वान कर रहा है । विचारों का जो प्रकाश धुंधला पड़ गया है उसको नये मस्तिष्क चाहिए, उसकी खोज के लिए नये दिमाग चाहिए । धर्म कहता है कि मुझे विचारों की और तर्क की कसौटी पर कसो, परखो, उसका मूल्य आँको और फिर आवाज लगाओ कि हमारा १०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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