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________________ पर्युषण-प्रवचन उस बेले के पारणे पर स्वयं भिक्षा पात्र लेकर घूम रहे हैं, कभी इधर और कभी उधर । अतिमुक्त कुमार अपने साथियों के बीच खेल - -कूद में मस्त हैं । सहसा गौतम जब उस ओर से निकलते हैं तो अतिमुक्त की निगाहें गौतम पर जा टिकती हैं । वह उस भव्य और मुक्त आत्मा को, उनके तेजस्वी मुख- मण्डल को देख कर आश्चर्य से सोचता ही रह जाता है कि यह क्या कर रहे हैं ? कभी इस घर में कभी उस घर में जा रहे हैं ? अतिमुक्त अपने खेल को छोड़ कर सड़क के इधर किनारे पर आ जाते हैं और गौतम से पूछते हैं कि आप कौन हैं ? क्या माँग रहे हैं ? क्या ले रहे हैं इधर उधर ? और गौतम सहज भाव से उत्तर देते हैं—“मैं साधु हूँ और इस गाँव में भिक्षा लेने आया हूँ ।" यह सुनते ही अतिमुक्त कहते हैं—“तो आप चलिए मेरे घर, मेरी माँ के पास । मैं आपको माता से आहार दिलवाऊँगा ।" बात छोटी-सी है, पर यह उस समय के जन-जीवन की एक झाँकी है । एक बच्चे का मन कितने उच्च संस्कारों की भूमिका पर है ? बच्चों के लिए खेल बहुत बड़ा काम है । आपका हजारों का लेन-देन और बच्चे का खेल बराबर है, अपने-अपने दृष्टिकोण से । जितना महत्त्व आपके सामने अपने काम का है, बच्चे के लिए खेल का महत्त्व उससे भी ज्यादा है । बच्चे बिना अपनी इच्छा के किसी भी मूल्य पर खेल छोड़ना नहीं चाहते । अतिमुक्त कुमार खेल में डूबा हुआ अवश्य है फिर भी उसका मन कितना जागृत है ? आपके पास दूकान पर या जब आप किसी कार्य में उलझे हों, तब कोई सार्वजनिक चन्दा लेने आए तो आपका माथा ठनकेगा । सम्भव है आप उसकी ओर देखें भी नहीं, बात की तो कौन कहे । उस समय आप दूकान के स्वामी नहीं हैं, उसके गुलाम हैं, काम ने आपको दबा लिया है । आपके ऑफिस में भी कोई जरूरत मन्द आपसे मिलने पहुँचता है, लेकिन आपको अवकाश नहीं बात करने का । काम आप से गुलाम की तरह काम ले रहा है । तो आज की यह स्थिति है, उस समय यह स्थिति नहीं थी । बच्चे तक भी जागृत थे उस समय । अतिमुक्त सोचता है कि इन्हें भिक्षा की आवश्यकता है, पर ये घर - घर क्यों माँगें ? मेरी माँ उदार है, वह न जाने कितनों को भोजन देती है, स्नेह और आदर से सबकी सेवा करती है, मेरी माता के हाथ से दान का प्रवाह निरन्तर गंगा की भाँति बहता है, कोई निराश नहीं Jain Education International १०६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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