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________________ अतिमुक्त कुमार बड़े होते हैं तो इनकी अमृतमयी बुद्धि नहीं रहती । ये बच्चे विषपूरित-घटों की भाँति संसार में घूमते रहते हैं । अब संसार में शान्ति आये तो कैसे और कहाँ से ? आपने तो जहरीले इंजेक्शन दे देकर इन्हें मानव से दानव बना दिया है और उनके सहज अमृत भाव को पहले ही समाप्त कर दिया है, उनका सारा जीवन दूषित और कलुषित बना दिया है । जिसके जीवन में आपने घृणा की दुर्गन्ध भरी है, वहाँ प्रेम का समुद्र कैसे मिलेगा ? आप चाहते हैं कि भ्रातृत्व-भाव पनपे, पड़ौसी आपस में प्रेम से रहें, सुख और शांति से रहें, पर यह सब कैसे हो ? इन्सान के मस्तिष्क में स्वार्थ और अहंकार के बीज बोए गए हैं । इस तरह से वह मस्तिष्क मानव का मस्तिष्क नहीं रह गया, उसमें तो घृणा और द्वेष के साँप, बिच्छू कुलबुला रहे हैं, वहाँ इन्सानियत का निवास नहीं है, फिर आनन्द सुलभ कैसे हो ? सद्गुरु की भेंट मैं आपसे कह रहा था कि हमारे भारतवर्ष की संस्कृति कितनी ऊँची थी और देशवासियों के विचार कितने पवित्र थे ? सोने के सिंहासन थे, विशाल ऐश्वर्य था, अधिकाधिक आनन्द भी उपलब्ध हो रहा था उन्हें, पर वे इन भोगों को अपने सिर पर रखकर नहीं चल रहे थे अपितु वे उन भोगों और सिंहासनों के स्वामी थे, उनके दास और गुलाम नहीं थे, ये भोग उनके पैरों तले दबे हुए थे । यही कारण है कि इन महापुरुषों की आत्माएँ इतनी जागृत थीं । अतिमुक्त कुमार भी इन्हीं जागृत आत्माओं में से एक थे । वह भी एक युग था, जब १४ हजार साधुओं के अधिष्ठाता, जैन परम्परा के उत्तरदायित्व को अपने कन्धों पर वहन करने वाले गौतम गोचरी लेने के लिए, भिक्षा लेने के लिए जा रहे हैं । स्वयं भगवान ने जिसके लिए कहा था कि यह जिन तो नहीं पर जिन के बराबर है, तीर्थकर तो नहीं है पर तीर्थकर के बराबर है । इतनी ऊँची भूमिका पर जिसे पहुँचा दिया है, फिर भी कितना नम्र है ? अपने ही पुरुषार्थ पर अपना जीवन चला रहा है । वह चाहता तो उसके एक ही इशारे पर हजारों भिक्षा लाने दौड़ सकते थे, पर वह स्वयं ही हाथ में झोली लिए भिक्षा हेतु परिभ्रमण कर रहा है । बेले का पारणा है, दो दिन का कठोर उपवास है, वह बेला भी एक बार का ही नहीं, अपितु जिस दिन से उन्होंने दीक्षा ली है, बेले बेले पारणा करते चले आ रहे हैं और Jain Education International १०५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001335
Book TitleParyushan Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1994
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Discourse, & Paryushan
File Size11 MB
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