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अतिमुक्त कुमार
मानव कौन ? शरीर या आत्मा ?
मनुष्य क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में जब हम मानव का विश्लेषण करते हैं, तो उसके दो रूप हमारे सामने आते हैं । हम मानव के शरीर को मानव कहें या उस आकृति में निवास करने वाली ज्योतिर्मान आत्मा को मनुष्य कहें ? वास्तव में बात यह है कि जब आत्मा और शरीर का सम्बन्ध होता है तो दोनों ही एक-दूसरे के आधार पर संसार की यात्रा करने के लिए आगे बढ़ते हैं, उस समय उनका जो एक रूप हमारे सामने आता है, वही मनुष्य है ।
मैं काला हूँ, यह गोरा है, यह लम्बा है, वह बौना है, यह मनुष्य के किस रूप का विश्लेषण है ? यह मनुष्य के बाह्य रूप का, शरीर का विश्लेषण है । लेकिन मनुष्य की आत्मा ? वह तो न काली है और न गोरी है । यह स्त्री है और यह पुरुष है ? यह मनुष्य के एक अंग, एक भाग का विश्लेषण है, परन्तु वह आत्मा जो उसमें खेल खेल रही है, वह आत्मा जो उसके अन्दर बिजली की भाँति प्रकाश बिखेर रही है, वह आत्मा स्त्री नहीं है, पुरुष भी नहीं है । बचपन, बुढ़ापा और जवानी शरीर का विश्लेषण है । विचार दृष्टि जब शरीर पर जाकर ठहरती है, तभी ये विविध रूप दिखाई देते हैं । आत्मा तो इन सबसे ऊपर है । भारतवर्ष में दर्शनयुग से पूर्व मनुष्य की विश्लेषण-दृष्टि शरीर तक ही सीमित थी, वे शरीर को ही मनुष्य मान कर चल रहे थे । जब तीर्थंकर के ज्ञान का प्रकाश जगमगाया तो उन्होंने कहा—“हाँ, एक दृष्टि से शरीर भी मनुष्य है, पर वास्तविक मनुष्य तो शरीर की ओट में छिपा हुआ है, जो शरीर तो नहीं अपितु शरीर वाला है । जो स्वयं हाथ-पैर नहीं, आँख-कान वाला है और हृदय वाला है । यह जो कुछ
भी वैभव है, उस वैभव का सृष्टा है । किसी और ने उस वैभव का निर्माण नहीं किया । आत्मा स्वयं ही उसका निर्माता है, वही शरीर में निवास कर रहा है और आनन्द ले रहा है ।" अन्तकृत दशांग सूत्र में मनुष्य के जिस रूप का विशलेषण चल रहा है, वह है आत्म-रूप । वह शरीर से भिन्न है, इन्द्रियों और मन से परे है और इस वैभव से भी परे है । परन्तु इस जीवन में वह चमक रहा है । इसी के आधार
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