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________________ ही अहिंसा भगवती है, परब्रह्म है। यह अपने कोमल अंक में सर्वव्यापकता के रूप में समग्र विश्व को समेट लेती है। यहाँ पराया जैसा कुछ भी तो शेष नहीं रहता। इसी रूप में तो यह श्रमण संस्कृति की विचार-प्रक्रिया की चरम परिणति है। अपने मानवतावादी अतीत के प्रति अपने सर्वमंगल त्याग और तपस्या के प्रति धमण-परम्परा का यह जो अहिंसा परक चिर प्रसिद्ध ममत्त्व है, उसके मूल स्रोत में जीव मात्र के भेदमुक्त कल्याण की ही भावना छिपी है अहिंसा किसी परीलोक का शब्द अथवा अजनबी भाव नहीं है। व्यवहार और सिद्धान्त का अर्थात् कर्म और धर्म का समन्वयरूप अद्भुत उद्गम स्रोत है। 'शिवमस्तु सर्वजगत:' एवम् 'सर्वेऽपि सुखिनः सन्तु' की विश्वदृष्टि, मानवीय चेतना की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है। सत्य के शाश्वत मूल्यों को समझने एवं हृदयंगम करने के लिए यह आवश्यक है कि अहिंसा को चतुष्कोणीय विचार प्रक्रिया को उन्मुक्त एवम् प्रातिभ दृष्टि से देखा जाय। समूची भारतीय चेतना को विश्व में समुचित आदर प्राप्त करने, श्रद्धावान होने एवं देवत्व की सीमा तक प्रतिष्ठित होने के पृष्ठ भाग में एक मात्र यह अहिंसा दर्शन ही है । और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में तटस्थभाव से देखा जाए, तो इस अहिंसा दर्शन को सर्वप्रथम सर्वोच्च शिखर तक प्रतिष्ठापित करने का श्रेय श्रमण-संस्कृति के विश्वमंगल महान अध्यात्मचेताओं को ही है । आदिम युग के इतिहास के अध्येताओं को यह ज्ञात है कि मानव का प्रारम्भिक जीवन पशु के समान ही व्यक्ति-निष्ठ था । मनुष्य की इन आदिम प्रवृत्तियों के मध्य भोगवादी निम्नस्तरीय एकांगी चित्तवृत्तियों की चरम स्थितियों का समावेश था और इस तरह उसका जीवन पशु से किसी भी प्रकार उन्नत न था। अहिंसा-दर्शन के माध्यम से मानव के प्रारम्भिक विकास एवम् उसकी क्रमशः अधोमुख से ऊर्ध्वमुख होती जाती चेतना की मनोवैज्ञानिक व्याख्या की जा सकती है, जिसके आधार पर आधुनिक विकृत होते मानवीय जीवन को भी चिन्तन के सर्वधा नये आयाम दिये जा सकते हैं । अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में जिस किसी भी वक्त भारतीय चिन्तन परम्परा पर विचार किया जायगा, एक बात स्पष्ट हो जाएगी कि इसके सांघर्षिक अतीत में मानव कल्याण की भावना के समृद्ध बीज निरन्तर ऊर्जा प्राप्त करते रहे हैं और यही कारण है कि आज के अनेकानेक विकृतियों से भरे युग में भी भारतीय चिन्तन परम्परा एवं उसकी सांस्कृतिक मर्यादा पूर्णतः विनष्ट नहीं हो पायी है अहिंसा ने मानव को सिर्फ दया करुणा करना ही नहीं सिखाया है, बल्कि बन्धुता के समान धरातल पर परस्पर मंत्री भाव से विचार एवम् आचार की समृद्धि के सर्वोच्च शिखर पर आरोहण कर जाने का भी दिव्य पाठ पढ़ाया है। इस दृष्टि से अहिंसा भारतीय चिन्तन-परम्परा और उसके इतिहास को एक विराट् स्वरूप प्रदान करती है। और यही कारण है कि संसार की उन महान सभ्यताओं में से, जो कालक्रम से बहुत पुरानी है और बुद्ध हैं, यही एक जीवित है। वस्तुतः अगर काफी गहराई के साथ भारतीय मनीषा की सचेतन दृष्टि और विकास के प्रति संकल्पित ऊर्जा की बहुआयामी दृष्टिकोण से छानबीन की जाए, तो अहिंसा दर्शन की स्थापना और उसका महत्त्व सूर्यालोक की भांति स्पष्ट हो जाएगा। उक्त दृष्टिकोण से विचार करने पर यह साफ परिलक्षित होता है कि अहिंसा वस्तुतः सर्वप्रथम एक आत्मानुशासन है, जो दुष्प्रवृत्तियों की गति को अवरुद्ध करता है और सत्प्रवृत्तियों को विचार के नये आयाम प्रदान करता है। मानव विकास के अध्ययन के पश्चात् उसकी मनोवृत्तियों की गवेषणा के मध्य यह बात स्पष्ट परिलक्षित होती है कि मनुष्य अमुक अंश में प्रकृति से कुछ उच्छृंखल है। उसका यह स्वभाव कुछ अंशों में उसकी परम्परागतवैभाविक प्रकृति के कारण है और कुछ देश, काल, पात्र और परिस्थिति के अनुसार इन्द्रियजन्य आवश्यकताएँ एवं परिवेशगत मान्यताएँ मनुष्य के विकास और पतन की द्वन्द्वात्मक यात्रा है। इसी यात्रा के मध्य से हो कर मनुष्य जैन इतिहास के सुदर्शन और ईसाई इतिहास के जीसस जैसे अमृतपुत्रों को सूली पर लटकाता रहा है एवम् वहीं दूसरी ओर अमृतपुत्र अपराधी के अज्ञानजन्य कृतघ्न कार्य के लिए प्रभु से क्षमा कर देने की प्रार्थना करते रहे हैं। मानव के पतन और विकास की चरम परिणति के रूप में इस उदाहरण को लिया जा सकता है । इस द्वन्द्वात्मक भाव संबंध में अहिंसा दर्शन की सर्वोत्तम उपलब्धियां दृष्टिगोचर होती है। अतएव अहिंसा एक ऐसा सत्य है, जिसे किसी भी ओर से नकारा नहीं जा सकता। और यह अहिंसा दर्शन श्रमण संस्कृति की अमर देन है अहिंसा की दृष्टि से भारतीय जनमानस का विकसित इतिहास तीर्थंकर परम्परा से प्राप्त होता है, जिसे कालान्तर में सभी धर्मो के प्रवर्तकों, चिन्तकों और अनुयायियों ने समान रूप से अंगीकार किया। परिणाम स्वरूप मनुष्य की आदिम हिंसात्मक उग्र मनोवृत्तियों पर अंकुश लगा और धीरे-धीरे समाज, शास्त्र तथा राजतंत्र में भी इसने प्रमुख रूप से ५२ सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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