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________________ 'अहिंसा' धर्म और दर्शन के शब्द संसार का एक महत्तर शब्द है। इस शब्द के ध्वनित होते ही उच्चतर भारतीय मनीषा की एक लम्बी चिन्तन-परम्परा विश्व वाङ्मय के चित्रपट पर वैचारिकता के नितान्त उदात्त एवम् महान् मानवतावादी आयामों का मन-भावन अंकन करना प्रारम्भ कर देती है। अनेक कालाविधियों के व्यतीत हो जाने के बाद भी इसके जन-मंगल अस्तित्व के अक्षण्ण रह पाने के पृष्ठभाग में मानवीय ऊर्जा की विकास-यात्रा के जो सम्बन्ध-सेतु दृष्टिगोचर होते हैं, उन्हें करुणामयी प्रज्ञा की सर्वोच्च उपलब्धि कह सकते हैं। उपलब्धियों के तरल उष्मायित प्राण-संजीवन की कुहक से जिस प्रेमास्पद वैचारिक नवनीत का संग्रह, तपस्या के दुग्ध समुद्र से किया गया है, वह प्राणिमात्र के प्रति अपनत्व का सार-गर्भित भाव है, सृष्टि के बहुआयामी विकास-क्रम का ऋजु संकल्प है, मानवीय चेतना की प्रखर दीप्ति है, मनुष्य के देवत्व पद पर प्रतिष्ठित होने के रचनाधर्मी सांर्षिक विजय का मनोहर गान है। प्राणिमात्र के प्रति अपनत्व के इस पावन भाव ने सृष्टि के उदात्त संकल्पों को एक ओर जहाँ नये सुरों से सजाया है, वहीं दूसरी ओर इसके विकास-क्रम में आने वाले भ्रान्तिजन्य आधिभौतिक, आधिदैविक एवम् आध्यात्मिक प्रवंचनाओं का भी यथादेश, यथाकाल परिष्कार किया है और परस्पर सहयोगी सहयात्री के रूप में मानव के मन-वाणी और कर्म को गति दी है। इस भावना ने मनुष्य के क्रूर स्वार्थो अहम् को तोड़ा है और प्रीतिमयी शब्दावलियों को एक सूत्र में ला जोड़ा है। "मित्ती मे सव्वभूएस" श्रमण संस्कृति की विराट भावना से निःसत वह अमृतसूत्र है, जिसके एक-एक अक्षर तथा शब्द के ध्वनिवर्धक चित्रपट को अगर ध्यान से देखा जाय, तो उपर्युक्त कही गयी सारी बातें सहज ही स्पष्ट हो जायंगी। सर्वभत में यह जो समत्व का मैत्री भाव है, प्राण की प्रत्येक स्फूरणाओं में यह जो शाश्वत मंगल-संदेश हैं, समस्त रोमकूपों में यह जो सजल स्पंदन है, यही तो अभिव्यक्त करता है--"मित्ती मे सव्वभूएसु" 'मैत्री मे सर्वभूतेषु' का यह विश्वतोमुखी माहात्म्य । यह वह विविध-वर्णी पूष्प सज्जित प्राण-सुषमा है, जो अपने में सर्वहित आह्लाद के कितने ही मन्वन्तरों को आबद्ध कर लेती हैं। अपने दिव्य प्रेमालिंगन में जब सारा संसार नेत्रों के सम्मख अपनत्व के पराग में हिल्लोलित होने लगता है, तब अहिंसा भगवती विश्वजननी के रूप में अभेद भाव से स्नेहवर्षण करती है। श्रमण संस्कृति की प्राणवत्ता यही तो है। इसी स्थल पर तो वह समग्र मानवीय चिन्तनशास्त्र को प्राणिमात्र के प्रति करुणामय स्वरूप में अवस्थित रहने का मंगलमय महान् संदेश देती हैं। अहिंसा मरणधर्मी देह की अमृतमयी प्राण-प्रतिष्ठा है। अभयमुद्रा में प्राणिमात्र को जीवन धारण करने का प्रथम पाठ है, प्रथम मंगलाचरण हैं। इसके आलोक में चिन्तकों ने जब भी विश्व को अपना संदेश दिया है--कल्याण का मार्ग प्रशस्त हुआ है। जीवन में संजीवनी सुधा का संचार हुआ है। दिगभ्रमित मानव-जाति सर्वहित में सृजनात्मक ऊर्जा को प्राप्त करती रही है। इसी केन्द्र पर एक में अनेक का और अनेक में एक का हित समाहित होता है। 'परस्परोपग्रहो जीवानम्' का सिद्ध मंत्र इसी के ब्रह्मकण्ठ से मुखरित हुआ है। मनुष्य की आदिम प्रवृत्तियों से लेकर आज तक की विकास-यात्रा के मध्य की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कड़ी अगर कुछ है, तो वह प्राणिमात्र की रक्षा की अहिंसा भावना ही है। एक मात्र इसी चिन्तना ने मनुष्य को भगवदात्मा के रूप में ऋषि-देवत्व और ईश्वरत्व जैसे महान पदों पर प्रतिष्ठित किया है। मानवीय सद्गुण जहाँ कहीं भी दृष्टिगोचर होते हैं, उन सब के मूल में अहिंसा भावना ही अपना प्रमुख स्थान रखती है। विकास की इस समृद्ध भाव-चेतना में जीवन के बहुविध आयामों को एक ओर जहाँ कल्याण-दृष्टि प्रदान की है, वहीं दूसरी ओर उसे ऊर्ध्वमुखी प्रेरकतत्त्वों से सौंदर्य-विभषित भी किया है। विश्व में जहाँ कहीं निर्मल निष्पाप सौंदर्य दिखाई पड़ता है, मानवीय चित्त जहाँ कहीं भी सहज आकर्षण को प्राप्त करता है, क्षुद्र अणु जहाँ कहीं भी विराट में तदाकार होने को प्रस्तुत होता है, उन तमाम बिन्दुओं पर ज्ञान का जो संजीवन-प्राण परिलक्षित होता है, वह अहिंसा में से प्रस्फुटित हुआ है। करुणामयी के असंख्य कण्ठों से ऋजु प्रज्ञा के दिव्य स्वर फूटते हैं। और फलतः भारती का वरद पुत्र अपनत्व के असीम स्नेह और पुलक रोमांचित हो गद्गद भाव से कह उठता है-- "अहिंसा परमोधर्मः।" अहिंसा के प्राण-प्रतिष्ठक करुणामूर्ति श्रमण भगवान् महावीर ने प्रश्नव्याकरण के अहिंसा सूक्त में अहिंसा को "भगवती' कहा है--"भगवई अहिंसा।" और उन्हीं के महान् उत्तराधिकारी आचार्य समन्तभद्र ने अहिंसा को प्राणिमात्र के लिए उपास्य परब्रह्म कहा है--"अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमम् ।" जी हाँ! सचमुच श्रमण-संस्कृति में : अहिंसा-दर्शन ५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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