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________________ इस तथ्य को हम एक अन्य उदाहरण से भी समझ सकते हैं एक विशाल एवं उत्तुंग सुरम्य पर्वत है, समझ लीजिए हिमालय है। अनेक पर्वतारोही विभिन्न मार्गों से उस पर चढ़ते है, और भिन्न-भिन्न दिशाओं की ओर से उसके चित्र लेते हैं । कोई पूरब से तो कोई पश्चिम से, कोई उत्तर से तो कोई दक्षिण से । यह तो निश्चित है कि विभिन्न दिशाओं से लिए गए चित्र परस्पर एक-दूसरे से कुछ भिन्न ही होंगे, फलस्वरूप देखने में वे एक-दूसरे से विपरीत ही दिखाई देंगे। इस पर यदि कोई हिमालय की एक दिशा के चित्र को ही सही बताकर अन्य दिशाओं के चित्रों को झूठा बताये, या उन्हें हिमालय के चित्र मानने से ही इन्कार कर दे, तो उसे आप क्या कहेंगे? वस्तुतः सभी चित्र एक पक्षीय हैं। हिमालय की एक-देशीय प्रतिच्छवि ही उनमें अंकित है । किन्तु हम उन्हें असत्य और अवास्तविक तो नहीं कह सकते सब चित्रों को यथाक्रम मिलाइये, तो हिमालय का एक पूर्ण रूप आपके सामने उपस्थित हो जायेगा। खण्ड-खण्ड हिमालय एक अखण्ड आकृति ले लेगा, और इसके साथ हिमालय के दृश्यों का खण्ड-खण्ड सत्य एक अखण्ड सत्य की अनुभूति को अभिव्यक्ति देगा । यही बात विश्व के समग्र सत्यों के सम्बन्ध में है कोई भी सत्य हो, उसके एक-पक्षीय दृष्टिकोणों को लेकर अन्य दृष्टिकोणों का अपलाप या विरोध नहीं होना चाहिए, किन्तु उन परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले दृष्टिकोणों के यथार्थ समन्वय का प्रयत्न होना चाहिए। दूसरों को असत्य घोषित कर स्वयं को ही सत्य का एकमात्र ठेकेदार बताना, एक प्रकार का अज्ञान-भरा अन्ध अहं है, दंभ है, छलना है । भगवान् महावीर ने कहा है, सम्पूर्ण सत्य को समझने के लिए सत्य के समस्त अंगो का अनाग्रहपूर्वक अवलोकन करो और फिर उनका अपेक्षा - पूर्वक कथन करो । भगवान् महावीर की यह चिन्तनशैली अपेक्षावादी अनेकान्तवादी शैली थी, और उनकी कथनशैली स्थाद्वाद या विभज्यवाद के नाम से प्रचलित हुई "विभज्जवायं च वियागरेज्जा ।" अर्थात् अनेकान्त वस्तु में अनन्त धर्म की तत्त्वदृष्टि रखता है, अतः वह वस्तुपरक होता है, और स्याद्वाद अनन्तधर्मात्मक वस्तु के स्वरूप का अपेक्षाप्रधान वर्णन है, अतः वह शब्दपरक होता है। जन साधारण इतना सूक्ष्म भेद ले कर नहीं चलता, अतः वह दोनों को पर्यायवाची मान लेता है। वैसे दोनों में ही अनेकान्त का स्वर है। जन-सुलभ भाषा में एक उदाहरण के द्वारा महावीर के अनेकान्त एवं स्याद्वाद का स्वरूप इस प्रकार समझा जा सकता है --आप जब एक कच्चे आम को देखते हैं, तो सहसा कह उठते हैं--आम हरा है, उसको चखते तो कहते हैं-आम खट्टा है। इस कथन में आम में रहे हुए अन्य गंध, स्पर्श आदि वर्तमान गुण-धर्मो की, तथा भविष्य में परिवर्तित होने वाले पीत एवं माधर्य आदि परिणमन- पर्यायों की सहज उपेक्षा-सी हो गई है। निषेध नहीं, उन्हें गौण कर दिया गया है। और वर्तमान में जिस वर्ण एवं रस का विशिष्ट अनुभव हो रहा है, उसी की अपेक्षा से आम को हरा और सट्टा कहा गया है। आम के सम्बन्ध में यह कथन सत्य कथन है, क्योंकि उसमें अनेकान्तमूलक स्वर है । किन्तु यदि कोई कहे कि आम हरा ही है, खट्टा ही है, तो यह एकान्त आग्रहवादी कथन होगा । 'ही' के प्रयोग में वर्तमान एवं भविष्य-कालीन अन्य गुण-धर्मों का सर्वथा निषेध है, इतर- सत्य का सर्वथा अपलाप है, एक ही प्रतिभासित आंशिक सत्य का आग्रह है । और जहाँ इस तरह का आग्रह होता है, वहाँ आंशिक सत्य भी सत्य न रह कर असत्य का चोला पहन लेता है। इसलिए महावीर ने प्रतिभासित सत्य को स्वीकृति दे कर भी, अन्य सत्यांशों को लक्ष्य में रखते हुए आग्रह का नहीं, अनाग्रह का उदार दृष्टिकोण ही दिया । लोक-जीवन के व्यवहार-क्षेत्र में भी हम 'ही' का प्रयोग करके नहीं, किंतु 'भी' का प्रयोग करके ही अधिक सफल और संतुलित रह सकते हैं। कल्पना करिए, आपके पास एक प्रौढ़ व्यक्ति खड़ा है, तभी कोई एक युवक आता है और उसे पूछता है- 'भैया ! किधर जा रहे हो ?' दूसरे ही क्षण एक बालक दौड़ा-दौड़ा आता है और पुकारता है- 'पिताजी! मेरे लिए मिठाई लाना।' तभी कोई वृद्ध पुरुष उधर आ जाता है और वह उस प्रौढ़ व्यक्ति को पूछता है-बेटा! इस धूप में कहाँ चले ? इस प्रकार अनेक व्यक्ति आते हैं, और कोई उसे चाचा कहता है, कोई मामा, कोई मित्र और कोई भतीजा । ४६ आप आश्चर्य में तो नहीं पड़ेंगे ? यह क्या बात है ? एक ही व्यक्ति किसी का भाई है, किसी का भतीजा सागर, नौका और नाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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