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________________ भगवान महावीर ने जितनी गहराई के साथ अहिंसा और अपरिग्रह का विवेचन किया, अनेकान्त-दर्शन के चिन्तन में भी वे उतने ही गहरे उतरे। अनेकान्त को न केवल एक दर्शन के रूप में, किन्तु सर्वमान्य जीवन-धर्म के रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय महावीर को ही है। अहिंसा और अपरिग्रह के चिन्तन में भी उन्होंने अनेकान्तदृष्टि का प्रयोग किया। प्रयोग ही क्यों, यहाँ तक कहा जा सकता है कि अनेकान्त-रहित अहिंसा और अपरिग्रह भी महावीर को मान्य नहीं थे। आप शायद चौकेंगे यह कैसे? किंतु वस्तुस्थिति यही है। चूंकि प्रत्येक वस्तु, प्रत्येक सत्ता, प्रत्येक स्थिति और प्रत्येक विचार अनन्त धर्मात्मक है। उसके विभिन्न पहल, विभिन्न पक्ष होते हैं। उन पहलुओं और पक्षों पर विचार किए बिना यदि हम कुछ निर्णय करते हैं, तो यह उस वस्तुतत्त्व के प्रति स्वरूपघात होगा, वस्तु-विज्ञान के साथ अन्याय होगा और स्वयं अपनी ज्ञान-चेतना के साथ भी एक धोखा होगा। किसी भी वस्तु के तत्त्व-स्वरूप पर चिन्तन करने से पहले हमें अपनी दृष्टि को पूर्वाग्रहों से मुक्त, स्वतन्त्र और व्यापक बनाना होगा, उसके प्रत्येक पहल को अस्ति, नास्ति आदि विभिन्न विकल्पों द्वारा परखना होगा, तभी हम उसके यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। अहिंसा और अपरिग्रह के विषय में भी यही बात है, इसलिए मैंने कहा--महावीर के अहिंसा और अपरिग्रह भी अनेकान्तात्मक थे। अहिंसात्मक अनेकान्तवाद का एक उदाहरण लीजिए। भगवान् महावीर ने साधक के लिए सर्वथा हिंसा का निषेध किया। “सव्वाओ पाणाइवायाओ विरमणं ।” किसी भी प्रकार की हिंसा का समर्थन उन्होंने नहीं किया। किन्तु जनकल्याण की भावना से, किसी उदात्त ध्येय की प्राप्ति के लिए, तथा वीतराग जीवन-चर्या में भी कभी कहीं परिस्थितिवश अनचाहे भी जो सूक्ष्म या स्थूल प्राणिघात हो जाता है, उस विषय में उन्होंने कभी एकान्त निवृत्ति का आग्रह नहीं किया, अपितु व्यवहार में उस प्राणिहिंसा को हिंसा स्वीकार करके भी उसे निश्चय में हिंसा की परिधि से मुक्त माना। क्योंकि उन्होंने अहिंसा की मौलिक तत्त्व-दृष्टि से बाहर में दृश्यमान प्राणिवध को नहीं, किन्तु राग-द्वेषात्मक अन्तरवृत्ति को, प्रमत्त-योग “पमायं कम्ममाहंस" को ही हिंसा बताया, कर्म-बन्धन का हेतु कहा, यही उनका अहिंसा के क्षेत्र में अनेकान्तवादी चिन्तन था। परिग्रह और अपरिग्रह के विषय में भी महावीर बहुत उदार और स्पष्ट थे। यद्यपि जहाँ परिग्रह की गणना की गई, वहाँ वस्त्र, पात्र, भोजन, भवन आदि बाह्य वस्तुओं को, यहाँ तक कि शरीर को भी परिग्रह की परिगणना में लिया गया, किन्तु जहाँ परिग्रह का तात्विक प्रश्न आया, वहाँ उन्होंने मूर्छा भाव के रूप में परिग्रह की एक स्वतंत्र एवं व्यापक व्याख्या की। महावीर वस्तुवादी नहीं, भाववादी थे, अत: उनका अपरिग्रह का सिद्धान्त बाह्य जड़ वस्तुवाद में कैसे उलझ जाता? उन्होंने स्पष्ट घोषणा की--वस्तु परिग्रह नहीं, भाव ही (ममता) परिग्रह है। मन की मर्छा, आसक्ति और रागात्मक विकल्प--यही परिग्रह है, बन्धन है--"मुच्छा परिग्गहों"। इसी प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, चिन्तन के हर नये मोड़ पर महावीर-'हाँ-और-ना' के साथ चले। उनका उत्तर 'अस्ति-नास्ति' के साथ अपेक्षापूर्वक होता था। एकान्त अस्ति या एकन्त नास्ति जैसा निरपेक्ष कुछ भी उनके तत्त्व-दर्शन में नहीं था। अपने शिष्यों से महावीर ने स्पष्ट कहा था--"सत्य अनन्त है, विराट् है। कोई भी अल्पज्ञानी सत्य को सम्पूर्ण रूप से जान नहीं सकता। जो जानता है, वह उसका केवल एक पहल होता है, एक अंश होता है। सर्वज्ञ सर्वदर्शी, जो सत्य का सम्पूर्ण साक्षात्कार कर लेता है, वह भी उस ज्ञात सत्य को वाणी द्वारा पूर्णरूप से अविकल व्यक्त नहीं कर सकता।" इस स्थिति में सत्य को संपूर्ण रूप से जानने का, और समग्र रूप से कथन करने का दावा कौन कर सकता है ? हम जो कुछ देखते हैं, वह एक-पक्षीय होता है। और जो कुछ कथन करते हैं, वह भी एकपक्षीय ही है। वस्तुत:सत्य के सम्पूर्ण स्वरूप को न हम एक साथ पूर्णरूप से देख सकते हैं, न व्यक्त कर सकते हैं, फिर अपने दर्शन को एकान्त रूप से पूर्ण, यथार्थ और अपने कथन को एकान्त सत्य करार देकर दूसरों के दर्शन और कथन को एकान्त रूप से असत्य घोषित करना, क्या सत्य के साथ अन्याय नहीं हैं ? विश्व-शान्ति का आधार अनेकान्त ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001329
Book TitleSagar Nauka aur Navik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2000
Total Pages294
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Discourse
File Size7 MB
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